रविवार, 2 अगस्त 2009

जिसने ख़ून होते देखा / अरुण कमल

जिसने ख़ून होते देखा / अरुण कमल

नहीं, मैंने कुछ नहीं देखा
मैं अन्दर थी। बेसन घोल रही थी
नहीं मैंने किसी को...

समीर को बुला देंगी
समीर, मैंने पुकारा
और वह दौड़ता हुआ आया जैसे बीच में खेल छोड़
कुछ हाँफता
नहीं, नहीं, मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है

वह बहुत छोटा था अभी
एकदम शहतूत जब सोता
बहुत कोमल शिरीष के फूल-सा
अभी भी उसके मुँह से दूध की गन्ध आती थी
ओह, मैंने क्यों पुकारा
क्यों मेरे ही मार्फ़त यह मौत, मैं ही क्यों कसाई का ठीहा, नहीं, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती, मैंने कुछ नहिं देखा
मैंने किसी को...

वे दो थे। एक तो वही...। उन्होंने मुझे बहन जी कहा या आंटी
रोशनी भी थी और बहुत अंधेरा भी, बहुत फतिंगे थे बल्ब पर
मैं पीछे मुड़ रही थी
कि अचानक
समीर, मैं दौड़ी, समीर
दूध और ख़ून
ख़ून
नहीं नहीं नहीं कुछ नहीं

मैं सब जानती हूँ
मैं उन सब को जानती हूँ
जो धांगते गए हैं ख़ून
मैं एक-एक जूते का तल्ला पहचानती हूँ
धीरे-धीरे वो बन्दूक घूम रही है मेरी तरफ़

चारों तरफ़

अरुण कमल जी की यह कविता और अन्य कविताएं कविता कोश में यहां उपलब्ध हैं ।
लेख: विजय गौड़

खबर घटना का एकांगी पाठ होता है

खबर और रचना में क्या फर्क है ? किसी एक घटना को कब खबर और कब रचना कहा जा सकता है ? खबर होती है कि एक जीप उलटने पर हताहतों को अपेक्षित इमदाद न मिलने की वजह से जान से हाथ धोना पड़ा। खबर यह भी होती है कि गुजरात नरसंहार में अपने भाई और पिता की चश्मदीद गवाह ने आरोपियों को पहचानने से इंकार कर दिया। या ऐसी ही दूसरी घटनाएं जो अपराध को दुर्घटना और दुर्घटना को अपराध में बदल रही होती है। सवाल है कि वह क्या है जिसके कारण कोई एक खबर, तथ्यात्मक प्रमाणों के बावजूद भी, उस सत्य को कह पाने में चूक जा रही होती है ? या सत्य होने के बावजूद भी खबर घटना का विवरण भर हो कर रह जा रही होती है।

स्पष्ट है कि सत्य कोई देखे और सुने को रख देने से ही प्रकट नहीं हो सकता। सत्य के प्रति पक्षधरता ही सत्य का बयान हो सकती है। खबर प्राफेशन (व्यवसाय) का हिस्सा है। प्रोफेशन का मतलब प्रोफेशन। एक किस्म की तटस्तथता। तटस्थता वाकई हो तो वह भी कोई बुरी बात नहीं। क्योंकि वहां प्रोफेशनलिज्म वाली तटस्थता तथ्यों के साथ छेड़-छाड़ नहीं करेगी। घटना या दुर्घटना के विवरण दुर्घटना को दुर्घटना और अपराध को अपराध रहने दे सकते हैं। पर शब्दों में तटस्थता और प्रकटीकरण में एक पक्षधरता की कलाबाजी खबरों का जो संसार रच रही है वह किसी से छुपा नहीं है। एक रचना का सच ऐसे ही गैरजनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के प्रतिरोध का सच होता है। उसकी तीव्रता रचनाकार के समूचित सरोकारों से बन रही होती है। वे सरोकार जो कानून के जामे में जकड़ी और भाषाई चालाकी के बावजूद जनतांत्रिक न रह जा रही शासन-प्रशासन की उस व्यवस्था को अलोकतांत्रिक होने से बचाने के लिए बेचैन होते हैं। घटनाओं की तथ्यात्मकता, उसके होने और उस होने से नाइतफाकी रखती स्थितियों की झलक न सिर्फ एक रचना को खबर से अलग कर रही होती है बल्कि प्रतिरोध की संभावना को भी आधार देती है। कवि अरुण कमल की कविता 'जिसने खून होते देखा" एक ऐसी ही रचना है जो किसी घटित हत्या के विरोध की सूचना भी है और काव्य तत्वों की संरचना में ऐसी किसी भी स्थिति के प्रतिरोध की संभावनाओं का सच भी है।

खबर घटना का एकांगी पाठ होता है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। जिसमें यथार्थ सिर्फ घटना की भौगोलिक पृष्ठभूमि के रूप में ही दिख रहा होता है और जिस सत्य का उदघाटन हो रहा होता वह सिर्फ और सिर्फ सूचना होती है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी उसकी तटस्थता तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है या उससे बच निकलने की एक चालाक कोशिश के रूप में बहुधा व्यवस्था की पोषकता ही उसका उद्देश्य हो रही होती है। रचना का यथार्थ इसीलिए खबर के यथार्थ से भिन्न होता है। अपने काल से मुठभेड़ और इतिहास से सबक एवं भविष्य की उज्जवल कामनाओं के लिए बेचैनी उसका ऐसा सच होता है कि लाख पुरातनपंथी मान्यताओं के पक्षधर और व्यवस्था के अमानवीयता के पर्दाफाश करने की प्रक्रिया से बचकर चलने के पक्षधर भी रचनाओं में वही नहीं दिख रहे होते और न ही लिख पा रहे होते हैं। उनकी रचनाओं का पाठ भी एक प्रगतिशील चेतना के मूल्य का, बेशक सीमित ही, सर्जन कर रहा होता है। नाजीवाद के समर्थक कामिलो खोसे सेला की कृति 'पास्कलदुआरते का परिवार' हो चाहे धार्मिक मान्यताओं के पक्षधर बाल्जाक की रचनाएं एक बड़े और व्यापक स्तर पर वे अपने समय का आइना हो जाती है।

अन्य अर्थों में रचना को यदि खबरों पर लिखी टिकाएं कहें तो एक हद तक उन्हें ज्यादा करीब से परिभाषित किया जा सकता है। वरिष्ठ कवि अरुण कमल की कविता 'जिसने खून होते देखा' एक मासूम की निर्मम हत्या के ऐसे सच का बयान है जिसमें अपराधी को पहचान लिए जाने लेकिन उसके प्रकटिकरण पर खुद को एक वैसे ही खतरे में घुमाफ़िरा देखने की वे मनोवैज्ञानिक स्थितियां है कि उसकी पृष्ठभूमि में जो यथार्थ उभरता है वह वैसे ही दूसरी अनेकों खबरों को भी परिभाषित करने लगता है। ऐसी बहुत सी खबरों की ढेरों खबरे होती है जो लोक में व्याप्त होती है पर जो एक बड़े दायरे की खबर से वंचित होती है उसमें देख सकते हैं कल का अपराधी आज का सफेदपोश नजर आता है। उसके अपराधों की फेहरिस्त बेशक जितनी लम्बी हो चाहे पर किसी भी सम्मानीय जगह पर कोई सबमें सम्मानीय हो तो तमाम कोशिशों से जड़ी गई कोमल मुस्कान में उसका ही चेहरा दमकता है। कविता बेशक अपराध जगत के इस आयाम को नहीं छूती पर उसकी परास इतनी है कि अपराध जगत के ऐसे ढेरों कोने जो समाज पूंजीवादी समाज व्यवस्था का जरूरी हिस्सा होते जा रहे हैं कविता को पढ़ लेने के बाद पाठक को बेचैन करने लगते हैं। प्रतिरोध की वे स्थितियां जो लाख चाहने के बाद भी यदि सीधे तौर पर दिखाई नहीं दे रही होती हैं तो क्यों ? कविता जिसने खून होते देखा उन कारणों की ओर ही इशारा करती है। तमाम खतरों के बावजूद प्रतिरोध की संभावनाओं को कविता में जिस खूबसूरती से रखा गया है वह काबिलेगौर है-

मैं सब जानती हूं
मैं उन सब को जानती हूं
जो धांगते गए हैं खून
मैं एक-एक जूते का तल्ला पहचानती हूं
धीरे-धीरे वो बन्दूक घूम रही है मेरी तरफ;

चारों तरफ।

कविता की ये अन्तिम पंक्तियां जिन खतरों की इशारा करती है, जान के जिस जोखिम को ताक पर रखते हुए भी हत्यारों की निशानदेही को जिस तरह रखने का साहस करती है, वह उल्लेखनीय है। डरते-डरते हुए भी सब कुछ कह जाने की वे स्थितियां जिस मनोविज्ञान को रख रही होती हैं और जिस समाज व्यवस्था का पर्दाफाश करती है उसमें कहन की युक्ति को देखना तो दिलचस्प है ही बल्कि उससे भी इतर समाज के भीतर दबी-छुपी, लेकिन फूट पड़ने का आतुर, प्रतिरोध की संभावनाएं उम्मीद जगाती है।

समीर को बुला देंगी
समीर, मैंने पुकारा
और वह दौड़ता हुआ आया जैसे बीच खेल छोड़ ;
कुछ हांफता
नहीं, नहीं मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है

जिस स्पष्टता और जिस बेबाकी और जिस निडरता की जरूरत ऐसे स्थितियों के प्रतिरोध के लिए जरूरी होनी चाहिए यानी उसको जिस तरह से मुमल स्वर दिया सकता है, अरुण कमल की यह कविता उसे अच्छे से साधती है। कविता की अन्य पंक्तियों में भी उसे देखा जा सकता है-

वह बहुत छोटा था अभी
एकदम शहतूत जब सोता
बहुत कोमल शिरीष के फूल-सा
अभी भी उसके मुंह से दूध की गंध आती थी
ओह, मैंने क्यों पुकारा
क्यों मेरे ही मार्फत यह मौत,
मैं ही क्यों कसाई का ठीहा,
नहीं, नहीं, मैं कुछ नहीं जानती,
मैंने कुछ नहीं देखा
मैंने किसी को---

अपराध के शिकार मासूम के प्रति एक स्त्री की संवेदनाएं तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी बार बार उसके एकालाप में उन खतरों को उठाती है जो अपराधी को चिन्हि्त कर लेने को बेचैन है।

मैं कुछ नहीं जानती
मैंने कुछ नहीं देखा
----
नहीं, नहीं, मैं चुप रहूंगी, मेरे भी बच्चे हैं, घर है

अपने अन्तर्विरोधों से उबरने की कोशिश कोई नाट्कीय प्रभाव नहीं बल्कि एक ईमानदार प्रयास है जो पाठक को लगातार उस मनौवैज्ञानिक स्थिति तक पहुंचाता है जहां खतरों और आशंकाओं की उपस्थिति भी उसे डिगा नहीं पाती। भय और अपराध के वे सारे दृश्य जो आए दिन की खबरों को जानते समझते हुए किसी भी पाठक के अनुभव का हिस्सा होते हैं, उनके प्रतिकार की प्रस्तुति को देखना कविता को महत्वपूर्ण बना दे रहे हैं।

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

फूल और काँटा / अयोध्यासिंह हरिऔध

हैं जन्म लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता
रात में उन पर चमकता चांद भी,
एक ही सी चांदनी है डालता ।


मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं ।


छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ,
फाड़ देता है किसी का वर वसन
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन ।


फूल लेकर तितलियों को गोद में
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से
है सदा देता कली का जी खिला ।


है खटकता एक सबकी आँख में
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर ।
---

अयोध्यासिंह हरिऔध जी की यह कविता और अन्य कविताएं आप कविता कोश में पढ सकते हैं।


लेख: शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
विश्व की अधिकांश कविताएँ देश, काल और परिस्थितियों पर आधारित लिखी गईं हैं। जो कविता स्थान विशेष की आवश्यकताओं के अनुरूप, वहाँ की संस्कृति, सभ्यता और व्यावहारिक रीति-नीति के पोषण के लिये लिखी जाती है उसे राष्ट्रवादी कविता कहते हैं। ऐसी कविताएं उस देश विशेष के लिये तो बहुत महत्वपूर्ण होती हैं किन्तु अन्य देशों के लिये उनका कोई महत्व नहीं होता। कुछ कविताएं समय की आवश्यकता के अनुसार लिखी जाती हैं, जो उस समय तो बहुत महत्वपूर्ण होती हैं किन्तु कालान्तर में उनका कोई महत्व नहीं रह जाता़।ऐसी कविता को सम सामयिक कविता कहते हैं। कुछ कविताओं की रचना परिस्थितिजन्य होती है, जो तत्कालीन परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुसार होती हैं जो उस परिस्थिति में तो आवश्यक प्रतीत होती हैं किन्तु परिस्थिति बदलने के बाद महत्वहीन हो जाती हैं। ऐसी कविता को पारिस्थितिक कविता कहते हैं। कुछ कविताएँ ऐसी भी होती हैं जो देश, काल, और परिस्थितियों की परिधि से बाहर होती हैं। वे न तो देश की सीमा में बँधी होती हैं और न समय के बन्धन में और न ही किसी परिस्थिति के अधीन होती हैं अपितु वे सभी देशों में, हर समय में और हर परिस्थिति में समान रूप से महत्वपूर्ण होती हैं उन्हें कालजयी कविता कहते हैं।

कविता कोश के पन्नों में से ऐंसी कालजयी कविताओं के रचयिताओं में से जगत प्रसिद्ध एक नाम है अयोध्या सिंह "हरिऔध "। हरिऔध जी की कविताएं देश, काल, और परिस्थितियों की सीमाओं में संकुचित न होकर संपूर्ण विश्व की धरोहर के रूप में आज विद्यमान हैं। उनकी एक बहुत प्रसिद्ध कविता है "फूल और काँटा"। ऐंसा कोई देश नहीं है जहाँ फूल और काँटा न हो, और न ही ऐंसा कोई समय रहा है और न रहने की सम्भावना ही है कि जब फूल और काँटे का अस्तित्व न हो। हर परिस्थिति में फूल और काँटों का अपना अपना महत्व होता है, इसीलिये यह कविता हर देश में, हर समय में, और हर परिस्थिति में अपना महत्व कम नहीं होने देती। फूल और काँटा कविता के द्वारा कवि संसार के एक बड़े रहस्य की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता है।आखिर क्या बात है कि एक ही परिवार में जन्म लेने वाले और एक जैसी ही परवरिश में पले बढे दो भाई परस्पर विपरीत स्वभाव के कैसे हो जाते हैं? कवि इस कविता के माध्यम से पुनर्जन्म के सिद्धान्त को भी परिपुष्ट करना चाहता है। व्यक्ति के स्वभाव में में पूर्व जन्मों के संस्कारों का बहुत बड़ा योगदान होता है, अन्यथा ऐसा कैसे हो सकता है?
जन्म लेते हैं जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता
रात में उन पर चमकता चांद भी,
एक ही सी चांदनी है डालता ।
मेह उन पर है बरसता एक सा,
एक सी उन पर हवाएँ हैं बहीं
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक से होते नहीं ।

मुख्यतः मुनष्य दो प्रकार के होते हैं धार्मिक और अधर्मी। धार्मिक व्यक्ति "सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्" की भावना से ओत-प्रोत रहकर सभी प्राणियों का हित करता है, और अधर्मी व्यक्ति केवल अपने स्वार्थ के लिये दूसरों का अहित करता रहता है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने धर्म और अधर्म की सबसे अच्छी परिभाषा की है:
परहित सरिस धरम नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।


अधर्मी व्यक्ति को दूसरों को कष्ट पहुँचाने में आनन्द आता है। उससे दूसरों का सुख देखा ही नहीं जाता। लोगों को दुख पहुँचाने में ही वह सुख का अनुभव करता है। वह इसी काम में लगा रहता है जीवन भर काँटे की तरह।
छेदकर काँटा किसी की उंगलियाँ,
फाड़ देता है किसी का वर वसन
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भँवर का है भेद देता श्याम तन।


धार्मिक व्यक्ति हमेशा दूसरों के कष्ट को दूर करता है वह कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकता। उसका स्वभाव फूल जैसा होता है। वह दूसरों की प्रसन्नता के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है।

फूल लेकर तितलियों को गोद में
भँवर को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगन्धों और निराले ढंग से
है सदा देता कली का जी खिला।


कवि यह संदेश देना चाहता है कि केवल अच्छे खनदान में जन्म लेने से बड़ा नहीं हुआ जा सकता। बड़े होने के लिये बड़प्पन का होना निहायत जरूरी है। केवल ऐसा बड़ा होना किस काम का जिसकी छत्रछाया में किसी को आश्रय न मिले।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।


अच्छे और बुरे व्यक्ति की पहचान गोस्वामी तुलसी दास जी बताई है॰॰॰

मिलत एक दारुण दुख देही।
बिछुरत एक प्राण हर लेही।।


हरिऔध जी भी यही बात अपने ढंग से कहते हैं॰॰॰

है खटकता एक सबकी आँख में
दूसरा है सोहता सुर शीश पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर।


हरिऔध जी की सभी कविताएं विश्वबन्धुत्व का संदेश देने वाली हैं और जाति, वर्ग, धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर आदर्श मानवीय मूल्यों को प्रोत्साहित करने वाली हैं।

सोमवार, 22 जून 2009

समुद्र-मंथन / शरद बिल्लोरे

समुद्र-मंथन
मैं समुद्र-मंथन के समय
देवताओं की पंक्ति में था
लेकिन बँटवारे के वक़्त
मुझे राक्षस ठहरा दिया गया और मैंने देखा
कि इस सबकी जड़ एक अमृत-कलश है,
जिसमें देवताओं ने
राक्षसों को मूर्ख बनाने के लिए
शराब नार रखी है।
मैं वेष बदल कर देवताओं की लाईन में जा बैठा
मगर अफ़सोस अमृत-पान करते ही
मेरा सर धड़ से अलग कर दिया गया।
और यह उसी अमृत का असर है
कि मैं दोहरी ज़िन्दगी जी रहा हूँ।

दो अधूरी ज़िन्दगी
राहु और केतु की ज़िन्दगी
जहाँ सिर हाथों के अभाव में
अपने आँसू भी नहीं पोंछ सकता, तो धड़
अपना दुख प्रकट करने को रो भी नहीं सकता।

दिन-रात कुछ लोग मुझ पर हँसते हैं
ताना मारते हैं
तब मैं उन्हें जा दबोचता हूँ।
फिर सारा संसार
ग्रहण के नाम पर कलंक कह कर
मुझे ग़ाली देता है।
तब मुझे अपनी भूल का अहसास होता है
क्योंकि समुद्र-मंथन के पूर्व भी
मैं राक्षस ही था
और इस बँटवारे में राक्षसों ने
देवताओं को धोखा दिया था
मेरी ग़लती थी कि मैं
बहुत पहले से वेष बदल कर
देवताओं की लाईन में जा खड़ा हुआ था।
-----
शरद बिल्लोरे जी की यह कविता और अन्य कविताएं कविता कोश में यहां पढी जा सकती है ।

लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
साहित्य और समाज का परस्पर क्या सम्बन्ध है और साहित्यकार का समाज के प्रति क्या दायित्व है? इस विषय में अभी तक जितनी बातें सामने आयी हैं, उनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध और सर्वमान्य उक्ति है "साहित्य समाज का दर्पण है"। अर्थात् साहित्य और समाज का वही सम्बन्ध है, जो किसी व्यक्ति और दर्पण का। दर्पण का एक मात्र दायित्व यही हे कि वह व्यक्ति को उसके सच्चे स्वरूप को दिखाता रहे। चेहरा कैसा लग रहा है ? कहाँ चेहरे पर दाग लगा है, बाल ठीक से सजे है कि नहीं? कल से आज में क्या अन्तर है? यह सब बिल्कुल जैसा का तैसा दिखलाने का कार्य दर्पण करता है। व्यक्ति उसे देखकर अपने को व्यवस्थित कर लेता है। साहित्य भी ठीक दर्पण जैसा समाज को उसका चेहरा दिखलाता रहता है। समाज अपने चेहरे को व्यवस्थित कर लेता है। इसीलिये किसी भी काल के साहित्य से तत्कालीन समाज का स्वरूप साफ साफ नजर आ जाता है।

आज मैं एक ऐसे नवयुवक साहित्यकार की कविता पर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, जो केवल २५ वर्ष की आयु में १०० श्रेष्ठ कविताओं की रचना कर साहित्य जगत में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखाकर दिवंगत हो गया। मध्यप्रदेश के एक छोटे से ग्राम रहटगाँव में जन्मे शरद बिल्लोरे ने अपनी कविताओं की शक्ल में समाज की पीड़ा को पहचाना था। प्रसिद्ध समीक्षक श्री राजेश जोशी के शब्दों में॰॰॰
शरद बिल्लौरे आठवें दशक के उत्तरार्ध का सबसे अधिक संभावनाओं से भरा कवि था। हर जगह उसमें लोगों से अपनापा बना लेने का विलक्षण गुण था। उसकी कविता की आत्मीयता वस्तुतः उसके व्यक्तित्व का ही कविता में रूपान्तरण है। गाँव के अपने निजी अनुभवों को कविता में रूपान्तरित करते हुए १९७४-७५ के आसपास उसने कविता लिखना शुरू किया था। उसकी प्रारम्भिक कविताओं में भी एक सहज और स्वयंस्फूर्त वर्ग-चेतना थी, जिसका विकास आगे चलकर एक प्रतिबद्ध कविता में हुआ।

उसकी कविता गहरे और सघन लयात्मक संवेदन की कविता है। जीवन की भटकन और कठिन संघर्षों को रचनात्मक कौशल और व्यस्क होती स्पष्ट वैचारिक दृष्टि के साथ कविता और कविता की विविधता में बदलती कविता। लोक-विश्वासों और लोक-मुहावरों को नए सन्दर्भ में व्याख्यायित करती। तीव्र आवेग और खिलंदड़ेपन के साथ ही गहरी आत्मीयता और सामाजिक विसंगतियों से उपजे विक्षोभ और करुणा की कविता।

समुद्र मन्थन कविता में कवि ने एक साथ कई संदेश देने की कोशिश की है। एक तो कवि महत्वपूर्ण पौराणिक कथा से लोगों को परिचित कराना चाहता है, तो दूसरी ओर वह लाभ के लिये पाला बदल लेने वाले व्यक्तियों को सतर्क भी करना चाहता है । गीता के सदुपदेश "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" का स्मरण कराते हुए कवि अपने स्वभाव में ही जीने की सलाह देता दिखाई देता है
मैं समुद्र-मंथन के समय
देवताओं की पंक्ति में था
लेकिन बँटवारे के वक़्त
मुझे राक्षस ठहरा दिया गया और मैंने देखा
कि इस सबकी जड़ एक अमृत-कलश है,
जिसमें देवताओं ने
राक्षसों को मूर्ख बनाने के लिए
शराब नार रखी है।
मैं वेष बदल कर देवताओं की लाईन में जा बैठा
मगर अफ़सोस अमृत-पान करते ही
मेरा सर धड़ से अलग कर दिया गया।
और यह उसी अमृत का असर है
कि मैं दोहरी ज़िन्दगी जी रहा हूँ।
दुहरी जिन्दगी जीना कितना भयावह होता है,
इसका मार्मिक चित्रण कितने अद्भुत ढंग से कवि करता है॰॰
दो अधूरी ज़िन्दगी
राहु और केतु की ज़िन्दगी
जहाँ सिर हाथों के अभाव में
अपने आँसू भी नहीं पोंछ सकता, तो धड़
अपना दुख प्रकट करने को रो भी नहीं सकता।
महत्वपूर्ण लाभ के लिये अपनी स्वाभाविक वास्तविक पहचान खो देने वाले लोगों की क्या हालत होती है और उन्हें अन्त में उन्हें अपनी भूल का अहसास निश्चय ही होता है पर तब कोई लाभ नहीं।

दिन-रात कुछ लोग मुझ पर हँसते हैं
ताना मारते हैं
तब मैं उन्हें जा दबोचता हूँ।
फिर सारा संसार
ग्रहण के नाम पर कलंक कह कर
मुझे ग़ाली देता है।
तब मुझे अपनी भूल का अहसास होता है
क्योंकि समुद्र-मंथन के पूर्व भी
मैं राक्षस ही था
और इस बँटवारे में राक्षसों ने
देवताओं को धोखा दिया था
मेरी ग़लती थी कि मैं
बहुत पहले से वेष बदल कर
देवताओं की लाईन में जा खड़ा हुआ था।

मंगलवार, 9 जून 2009

नाम रूप का भेद / काका हाथरसी


नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर ?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने
कहँ ‘काका’ कवि, दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर


मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैंट में-
ज्ञानचंद छै बार फेल हो गए टैंथ में
कहँ ‘काका’ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे


देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्राय: निर्धन देखे
कहँ ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए क्वाँरे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे


दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भौंक रहे हैं
‘काका’ छै फिट लंबे छोटूराम बनाए
नाम दिगंबरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए


पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी
कहँ ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा


दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दुख देने वाले
कहँ ‘काका’ कविराय, आँकड़े बिल्कुल सच्चे
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे


चतुरसेन बुद्धू मिले,बुद्धसेन निर्बुद्ध
श्री आनंदीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते
कहँ ‘काका’, बलवीरसिंह जी लटे हुए हैं
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं


बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल
सूखे गंगाराम जी, रूखे मक्खनलाल
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी
निकले बेटा आशाराम निराशावादी
कहँ ‘काका’ कवि, भीमसेन पिद्दी-से दिखते
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते


आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद
कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद
भागे पूरनचंद अमरजी मरते देखे
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे
कहँ ‘काका’, भंडारसिंह जी रीते-थोते
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते


शीला जीजी लड़ रहीं, सरला करतीं शोर
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली
कहँ ‘काका’ कवि, बाबूजी क्या देखा तुमने ?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने


तेजपाल जी भोथरे मरियल-से मलखान
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई
कहँ ‘काका’ कवि, फूलचंदजी इतने भारी
दर्शन करके कुर्सी टूट जाए बेचारी


खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन
चिलगोजा से नैन शांता करती दंगा
नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा
कहँ ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही है


कलियुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ
बाबू भोलानाथ, कहाँ तक कहें कहानी
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी
‘काका’, लक्ष्मीनारायण की गृहिणी रीता
कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता


अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम
रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खूब मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा
पार्वतीदेवी हैं शिवशंकर की अम्मा


पूँछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान
घर में तीर-कमान बदी करता है नेका
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा
सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं


सुखीराम जी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभू की देखो माया
प्रेमचंद ने रत्ती-भर भी प्रेम न पाया
कहँ ‘काका’, जब व्रत-उपवासों के दिन आते
त्यागी साहब, अन्न त्यागकर रिश्वत खाते


रामराज के घाट पर आता जब भूचाल
लुढ़क जाएँ श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल
बैठें घूरेलाल रंग किस्मत दिखलाती
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती
कहँ ‘काका’ गंभीरसिंह मुँह फाड़ रहे हैं
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं


दूधनाथ जी पी रहे सपरेटा की चाय
गुरु गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे


रूपराम के रूप की निंदा करते मित्र
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती
कहँ ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी


नाम-धाम से काम का, क्या है सामंजस्य ?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटे न रेखा
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा
कहँ ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की

काका हाथरसी की यह कविता और अन्य कविताएं कविता कोश पर यहां पढी जा सकती हैं ।

लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

कविता की अनेक परिभाषाओं में सर्वमान्य और सबसे प्रसिद्ध दो परिभाषाएं हैं:

  • " काव्यो वै आनन्दः " अर्थात् जो अभिवंयक्ति आनन्द उत्पन्न कर दे उसे कविता कहते हैं।

  • " वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम् " अर्थात् जो वाक्य रस उत्पन्न करता हो उसे कविता कहते हैं।

दोनों का तात्पर्य लगभग एक ही है। आनन्द का स्रोत रस ही तो है, रस होगा तो आनन्द आयेगा। वैसे तो सभी रसों में आनन्द की अनूभूति होती है पर हास्य रस तो सीधा-सीधा आनन्द उड़ेल देता है। इसीलिये हास्य कविता की सबसे ज्यादा मांग होती है। कवि-सम्मेलन तो अब केवल हास्य रस पर ही टिके हुए हैं। हास्य का शरीर पर भी अनुकूल प्रभाव होता है अतः योग में भी हास्य आसन का समावेश किया गया है। जहाँ तक कविता में हास्य रस का प्रश्न है तो अधिकांश हास्य कवियों ने फूहड़ता का सहारा लिया है और उनका केवल हंसने हंसाने तक ही उद्देश्य रहा है, किन्तु कुछ ऐंसे हास्य कवि भी हुए जिन्होंने न केवल लोगों को हंसा-हंसाकर लोट-पोट किया, वरन उसे गंभीर बनाकर कुछ सोचने को भी विवश किया है़, और हास्य कविता को साहित्य में एक अलग स्थान भी दिया है। ऐसे कवियों में काका हाथरसी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है । ऐसा कोई सामाजिक विषय नहीं है जिस पर काका की लेखनी न चली हो। उनका प्रिय छन्द कुंडलियाँ है। गिरधर की कुंडलियों के बाद यदि कहीं कुंडलियों की चर्चा होती है तो वह काका की कुंडलिया हैं। काका के कहने का ढंग इतना अच्छा होता था कि सुनने वाला अकेले में भी हंसता दिखाई देता था। मुझे बचपन में सुनी उनकी कई कुंडलियाँ याद हैं। बच्चों को कुछ पढा़या जाता है फिर उनसे प्रश्न पूछे जाते हैं, पर कभी-कभी बच्चे अपने निजी उत्तर कैसे देते हैं देखिये॰॰॰
पढा रहे थे क्लास में मास्टर व्यंकट राव
गुण माता के दूध में होते क्या बतलाव
होते क्या बतलाव तभी एक बोला बच्चा
बिना उवाले उसको पी सकते हैं कच्चा
सबसे पीछे से एक लड़की बोली लिल्ली
मम्मी जी का दूध नहीं पी सकती बिल्ली़।।


इसी प्रकार एक और मनोरंजक एवं सटीक प्रश्नोत्तर देखिये॰॰
प्रश्न
आकर बोले एक दिन पंडित पन्नालाल।
मर्दों के मस्तिष्क से क्यों उड़ जाते बाल।।
क्यों उड़ जाते बाल बात हम तुमसे पूछें
महिलाओं की क्यों न उपजती दाढी मूछें
कह काका कविराय गए हम भागे भागे
तब दोनों प्रश्नों के उत्तर आए आगे ।।
उत्तर
काया के जिस भाग से ज्यादा लेते काम।
बाल वहाँ जमते नहीं बंजर होता चाम।।
बंजर होता चाम बुद्धि पर जोर लगाते
उन पुरुषों के सिर के बाल शीघ्र उड़ जाते
कह काका देवी जी दिन भर गप्प लड़ातीं
इसीलिये तो दाढी मूछ नहीं उग पाती।।
प्रस्तुत कविता में नाम से विपरीत गुण वाले १०८ नामों की मनोरंजक चर्चा है। भारत में नामकरण एक संस्कार होता है । इस संस्कार में विद्वान लोग ग्रह नक्षत्रों के आधार पर बच्चे के व्यक्तित्व को दर्शाने वाला नाम रखते थे। तब नाम से ही उसके गुणों का पता चल जाता था। इसलिये कहा जाता है " यथा नामो तथा गुणः " अर्थात् जैसा नाम वैसा गुण, या जैसे गुण वैसा नाम। पर आजकल माता पिता अपनी विना कुछ विचार किये कुछ भी नाम रख लेते हैं, तब कया होता है काका से सुनिये।

मंगलवार, 26 मई 2009

तुम कभी थे सूर्य / चन्द्रसेन विराट


तुम कभी थे सूर्य
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये

यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये

वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये

देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये

देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये

प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये

कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये

सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये

चंद्रसेन विराट जी की यह गज़ल और अन्य कविताएं कविता कोश में यहां पढ़ी जा सकती हैं ।


लेख : शास्त्री नित्य गोपाल कटारे
दुष्यंत जी के बाद हिन्दी गजल की परम्परा को आगे बढाने का कार्य अनेक कवियों ने सफलता पूर्वक किया है । उनमें श्री चन्द्रसेन विराट का नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। छन्द शास्त्र के मर्मज्ञ श्री विराट ने अनेक छन्दों में कुशलता के साथ अपनी लेखनी के माध्यम से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। आपका सारा लेखन प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य के मध्य सेतु का काम करता है। आपकी कविताओं में एक ओर जहाँ प्राचीन भारतीय संस्कृति, परम्परा और जीवन मूल्यों को समुचित स्थान मिला है साथ ही आधुनिक भौतिकवाद की चकाचोंध से भ्रमित समाज को एक अच्छी दिशा भी दिखाई देती हैं।

"तुम कभी थे सूर्य" ग़ज़ल में आपने पुराने भारतीय गौरव का स्मरण कराते हुए आज तक की यात्रा का कुशल विवेचन किया है। कभी विश्वगुरु की उपाधि से विभूषित रह चुके भारत की आज स्थिति क्या है? और क्या यही हमारी उपलब्धि है? सोचने को विवश करती है यह पंक्ति:
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये

"यथा राजा तथा प्रजा" सूक्ति के अनुसार जैसा नेतृत्व होगा समाज भी वैसा ही हो जाता है। यदि नेता अच्छा नही है तो देश कभी आगे नहीं बढ सकता। नेतृत्व बदलते ही सारी व्यवस्था बदल जाती है॰॰॰
यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये

समय सबका नियन्ता है। समय ने सबको सबक सिखाया है, उससे कोई नहीं बच सकता। "समय बड़ा बलवान" का स्मरण रखने की शिक्षा देते हुए कवि कहता है॰॰॰
वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये

राजनीति की अस्थिरता का जिक्र करते हुए कवि ने "प्यार और राजनीति में सब कुछ जायज है" कहने वाले राजनीतिज्ञों को सावधान किया है॰॰॰
देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये

एयरकंडीशन बंगलों में बैठकर राष्ट्र की समस्याओं पर धाराप्रवाह भाषण करने वाले तथाकथित नेताओं को झाड़ते हुए कवि कहता है॰॰॰
देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये

शाश्वत प्रेम के आध्यात्मिक महत्व को समझाते हुए कवि उसकी दुर्दशा पर आँसू बहाता दिखता है॰॰॰

प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये

प्रगतिशील लेखन के नाम पर हो रही साहित्य की गिरावट पर कवि चोट करते हुए उन व्यावसायिक समालोचकों की खबर भी लेता है॰॰॰
कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये

आधुनिक सभ्यता की उपलब्धियों पर कटाक्ष करते हुए कवि चिन्तन करने को विवश करता है॰॰॰

सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये


सोमवार, 18 मई 2009

सुख का दुख / भवानीप्रसाद मिश्र




जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है,
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूं ।

यहां एक बात
इससॆ भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,
मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें
सिखा दूं कि सुख कोई डरने की चीज नहीं है ।

मगर नहीं
मैंने देखा है कि जब कभी
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में
बाजार में या किसी के घर,
तो उनकी आँखों में खुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ साथ डर भी आ गया है ।

बल्कि कहना चाहिये
खुशी झलकी है, डर छा गया है,
उनका उठना उनका बैठना
कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह पाता,
और मुझे इतना दु:ख होता है देख कर
कि मैं उनसे कुछ कह नहीं पाता ।

मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि बेटा यह सुख है,
इससे डरो मत बल्कि बेफिक्री से बढ़ कर इसे छू लो ।
इस झूले के पेंग निराले हैं
बेशक इस पर झूलो,
मगर मेरे बच्चे आगे नहीं बढ़ते
खड़े खड़े ताकते हैं,
अगर कुछ सोचकर मैं उनको उसकी तरफ ढकेलता हूँ
तो चीख मार कर भागते हैं,

बड़े बड़े सुखों की इच्छा
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने उन्हें फोड़ दी है ।

भवानी प्रसाद मिश्र जी यह कविता और बहुत सी अन्य कविताएं कविता कोश पर यहां पढी जा सकती हैं


लेख : शास्त्री नित्य गोपाल कटारे

दुनियाँ की समस्त कविताओं को कथ्य की दृष्टि से दो भागों में बांट सकते हैं। एक है भावात्मक कविता और दूसरी है विचारात्मक कविता। जब व्यक्ति का भाव केन्द्र किसी भावातिरेक से भर जाता है तो वह भाव स्वयं अभिव्यक्त होने लगता है, तब कवि उस भाव को जो कविता का स्वरूप देता है उसे हम भावात्मक कविता कहते है। इसी तरह जब मस्तिष्क में कोई सुन्दर विचार आता है और उसे अभिव्यक्त करने के लिये जो रचना की जाती है उसे विचारात्मक कविता कहते हैं। भावात्मक कविता स्वयं प्रस्फुटित होती है और विचारात्मक कविता सप्रयास और सोद्देश्य रची जाती है।
कविता कैसी होनी चाहिये इस विषय पर साहित्य जगत में वाद॰॰विवाद चलता रहता है।
इस बारे में सबसे अच्छा परिभाषा गोस्वामी तुलसीदास जी ने कुछ इस प्रकार की है॰॰॰॰॰॰
कीरति भणिति भूति भलि सोई ।
सुरसरि सम सब कर हित होई ।।

अर्थात् कीर्ति , कविता और समृद्धि वही अच्छी होती है जो गंगा के समान सबका कल्याण कर सके।
कीर्ति ,कविता और समृद्धि यदि केवल अपने लिये ही हो तो वह दो कौड़ी की है । ऐसी कीर्ति का समाज में, कविता का साहित्य में और समृद्धि का राष्ट्र में कोई स्थान नहीं होता। " हितेन सहितम् साहित्यम् " अर्थात् जिसमें समाज का हित निहित हो उसे साहित्य कहते हैं । अच्छी कविता वही है जो समाज का हित कर सकती हो, भले ही उसमें रस ,छन्द ,अलंकारों का सर्वथा अभाव ही क्यों न हो।
कविता कोश के ऐसी कविता लिखने वाले महान साहित्यकारों में से एक हैं पं. भवानीप्रसाद मिश्र , जिनकी सभी कविताएं विचार प्रधान और समाज को दिशाबोध कराने में समर्थ रही हैं। सन्नाटा ,
सतपुड़ा के घने जंगल और गीत फरोश जैसी कविताओं के माध्यम से समाज को पर्यावरण , इतिहास ,कला और संस्कृति के प्रति संवेदनशील बनाया। उन्हीं की एक कविता है " सुख॰दुख "
सुख और दुख ऐसे द्वन्द्व हैं जो मनुष्य को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं । वह इनके बन्धन से मुक्त नहीं हो पाता। सुख॰॰दुख एक सिक्के के दो पहलू हैं जौ कहीं भी साथ साथ ही जाते हैं । यह अलग बात है कि एक समय में एक ही दिखता है दूसरा छुपा रहता है, और जब सिक्का पलटता है तो दूसरा दिखने लगता हे और पहला छुप जाता है। वास्तव में इन दोनों का ही कोई अस्तित्व नहीं है, मात्र मन का भ्रम है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं॰॰॰
सुख॰॰दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
तस्मात् युद्धस्व कौन्तेय नैवं पापमवाप्स्यसि।।

अर्थात् हे अर्जुन सुख॰॰दुख़, लाभ॰॰हानि, और जय॰॰पराजय को समान मानकर युद्ध कर फिर पाप नही लगेगा। इस गूढ दर्शन को मिश्र जी ने अपने सहज सरल अन्दाज में किस तरह व्यक्त किया है॰॰॰
जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है,

जिस प्रकार दुःख को झेलने के लिए क्षमता चाहिये, वैसे ही सुख को झेलने के लिए भी वैसी ही क्षमता की आवश्यकता होती है। अन्यथा कई ऐसे उदाहरण हैं कि अचानक कोई बड़ी खुशी मिल जाने से उसे झेल नहीं पाये और पंचत्व को प्राप्त हो गए। अतः बड़ा सुख बड़े दुख का कारण भी बन सकता है। इसीलिये कवि सतर्क कर देता है"""
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूं ।

सुख जितना बड़ा होता है समय का सिक्का पलटने पर वही उतने ही बड़े दुःख में बदल जाता है। सुख आने के साथ ही उसके खो जाने का डर भी साथ ही आ जाता है ,जो बड़ा दर्दनाक होता है। कवि के शब्दों में देखिये॰॰॰॰

यहां एक बात
इससॆ भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,

कवि एक शाश्वत सत्य का उद्घाटन करना चाहता है कि सुख और दुःख दोनों का ही स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है अपितु वे मन के खिलोने मात्र हैं। सुख और दुख की परिभाषा दर्शन शास्त्र में इस तरह की गई है॰॰॰
" मनोऽनुकूलं कार्यं सुखं मनस्प्रतिकूलं दुःखम् "
अर्थात् जो कुछ मन के अनुसार हो तो सुख होता है ,और जो मन के प्रतिकूल हो तो दुख होता है। जैसे मन प्रति पल बदलता है वैसे ही सुख॰॰दुख बी बदलते रहते हैं। जो व्यक्ति दुख नहीं चाहता उसे सुख की भी तलाश नहीं करना चाहिये। क्यों कि वे पक्के साथी हैं साथ साथ ही आते हैं।

मैंने देखा है कि जब कभी
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में
बाजार में या किसी के घर,
तो उनकी आँखों में खुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ साथ डर भी आ गया है ।

अन्त में कवि इस विषय में गीता का समाधान॰॰॰
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीत राग भय क्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।

अर्थात् जो व्यक्ति दुख आने पर उद्विग्न नहीं होता और सुख आने पर नाचता भी नहीं है ,जिसके राग भय और क्रोध नष्ट हौ जाते हैं वह स्थिर बुद्धि कहलाता हे ।इस परम उपदेश को शिरोधार्य करते हुए कवि निर्णय लेता है॰॰॰

बड़े बड़े सुखों की इच्छा
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने उन्हें फोड़ दी है ।
इस तरह पं, भवानी प्रसाद मिश्र ने समाज के कल्याण के लिये अच्छे विचारों को अपनी कविता का माध्यम बनाया है। उनकी हर एक कविता कोई न कोई विशिष्ट सन्देश देती है


मंगलवार, 12 मई 2009

एक आँख वाला इतिहास / दूधनाथ सिंह


मैंने कठैती हड्डियों वाला एक हाथ देखा--
रंग में काला और धुन में कठोर ।
मैंने उस हाथ की आत्मा देखी--
साँवली और कोमल
और कथा-कहानियों से भरपूर !
मैंने पत्थरों में खिंचा
सन्नाटा देखा ।
जिसे संस्कृति कहते हैं ।
मैंने एक आँख वाला
इतिहास देखा
जिसे फ़िलहाल सत्य कहते हैं ।

दूधनाथ सिंह जी की यह और अन्य कविताएं आप कविता कोश में यहां पढ सकते हैं ।


लेख : अमिताभ त्रिपाठी

दूधनाथ सिंह जी की एक छोटी किन्तु अत्यन्त चुटीली और प्रभावपूर्ण कविता है "एक आँख वाला इतिहास" । इतिहास की विडम्बना है कि इसे सदैव सत्तासीन शक्तियों द्वारा लिखवाया जाता है। जिसमें वह बहुत कुछ नहीं होता जिस पर वह युग, वह समाज यहाँ तक कि वह सत्ता भी निर्भर करती है। सत्तासीनों की मति और अभिमत से लिखवाये गये ये इतिहास कुछ परिवारों की शौर्यगाथाओं, पारस्परिक वैमनस्यों, उनके बैभव एवं विलासिताओं, उनकी निर्मितियों, आस्थाओं, पूर्वाग्रहों आदि के लेखे-जोखे मात्र हैं। इसमें वह बहुसंख्यक जन कहीं नहीं है किसके श्रम के दोहन से उन्होने सत्ता का सुख भोगा है। यह परम्परा प्रचीन काल से आज तक चली आ रही है। इस बीच शासन तंन्त्र बदले, शासक बदले, शासितों में भी कुछ परिवर्तन हुये परन्तु सत्तासीनो द्वारा इतिहास को मनोनुरूप लिखवाने के प्रयत्न अब भी जारी हैं। जिसमें आम आदमी और सत्य के अतिरिक्त सब कुछ होता है।
आरम्भ में एक हाथ दिखता है
मैंने कठैती हड्डियों वाला एक हाथ देखा--
रंग में काला और धुन में कठोर ।
मैंने उस हाथ की आत्मा देखी--
साँवली और कोमल
और कथा-कहानियों से भरपूर !
कठैती हड्डियों वाला, काला और धुन में कठोर
कठैती, मजबूती का भी प्रतीक है और सदियों की संवेदना शून्यता का भी यही बात आगे धुन में कठोर से और भी स्पष्ट हो जाती है। धुन में कठोर उस दृढता को भी दर्शित करता है जो उसकी जिजीविषा की वाहक है। काला रंग, वर्ण का उतना प्रतीक नहीं जितना अंधकार में धकेले जाने का। फिर भी उसकी आत्मा साँवली और कोमल है। आत्मा की सरलता और मृदुता का कारण है उसका पारम्परिक कथा और कहानियों से भरा हुआ मन जो सभी कठिनाइयों को सह लेने का सम्बल प्रदान करता है। फलतः उसने नियति से समझौता कर लिया है।
मैंने पत्थरों में खिंचा
सन्नाटा देखा ।
जिसे संस्कृति कहते हैं ।

यह सन्नाटा यथास्थितिवाद का सन्नाटा है। पत्थर उस निस्पन्दता और जड़ता का प्रतीक है जो संस्कृति के नाम पर निरन्तर चली आ रही है। हम मोह्ग्रस्त हैं उसके अनुरक्षण के लिये।
और अन्त में कविता वहाँ पहुँचती है जहाँ के लिये शुरू हुई थी।
मैंने एक आँख वाला
इतिहास देखा
जिसे फ़िलहाल सत्य कहते हैं ।

एकांगी इतिहास हर समय का सत्य रहा है और इसके तले वही रौंदा गया है जिसके पास कलम नहीं थी या उसे ख़रीदने की ताकत नहीं थी। नीरज जी ने भी इतिहास के इस विद्रूप को रेखांकित करते हुये कहा है
उन्ही लोगों ने इतिहास बनाये हैं यहाँ
जिनपे इतिहास को लिखने के लिये वक़्त न था।
इतिहास के ये वास्तविक निर्माता नीव के पत्थरों की भाँति कभी चर्चा में नहीं आते। एक आँख वाला इतिहास इनकी तरफ की आँख मूंदे रहता है। किसी ने सच ही कहा है ’इतिहास एक प्रवंचना है’ (History is a fraud). ’जिसे फ़िलहाल सत्य कहते हैं’ में एक निहितार्थ भी छिपा है कि यह फ़िलहाल सत्य है। भविष्य में इसके असत्य हो जाने की सम्भावना है। कविता इस अदृश्य से आशावाद पर समाप्त होती है।

रवीन्द्र कालिया जी ने लिखा है कि दूधनाथ जी कम लिखते हैं लेकिन जब लिखते तब तबीयत से लिखते हैं। उनके गद्य और पद्य दोनो में यह बात देखी जा सकती है। यह छोटी सी सारगर्भित कविता भी उन्होने तबीयत से लिखी है।

रविवार, 3 मई 2009

बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ / अकबर इलाहाबादी


दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त, नक़्श ब-दीवार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा हूँ इब्रत से, दवा की नहीं हाजत
गम़ का मुझे ये जो़’फ़ है, बीमार नहीं हूँ

वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ

यारब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जो़’फ़ की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ


तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला
ज़ीस्त= जीवन; लज़्ज़त= स्वाद
ख़ाना-ए-हस्ती= अस्तित्व का घर; बेलौस= लांछन के बिना
फ़क़्त= केवल; नक़्श= चिन्ह, चित्र
अफ़सुर्दा= निराश; इब्रत=मानसिक खेद ; हाजत= आवश्यकता
जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी,क्षीणता
गुल=फूल; ख़िज़ां= पतझड़; ख़ार= कांटा
महफ़ूज़= सुरक्षित; इनायत= कृपा; तलबगार= इच्छुक
अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़=निराशा और क्षीणता;क़ाफ़िर=नास्तिक; दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला
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अकबर इलाहाबादी जी की यह गज़ल और अन्य रचनाएं कविता कोश में यहां पढी जा सकती हैं ।

लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
केवल रस,छन्द और अलंकारों द्वारा सुसज्जित शब्द समूह की रचना कर लेना ही कवि होने के लिये पर्याप्त नहीं है। कवि को वेद और उपनिषदों में ॠषि, मुनि, दृष्टा के समतुल्य माना गया है। कवि वह होता है जो परम सत्य को उद्घाटित करने में समर्थ हो, जो समाज के कल्याण के लिये साधन उपलब्ध करा सकता हो, जो वर्तमान को देखकर भूतकाल और भविष्यकाल का अनुमान कर सके, जो इन्द्रियातीत पदार्थों का समुचित अनुभव कर सकता हो।श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है॰॰॰
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनाम् उशना कविः

अर्थात् मैं मुनियों में व्यास और कवियों में श्रेष्ठ कवि उशना अर्थात् शुक्राचार्य हूँ । जबकि शुक्राचार्य जी ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, अपितु उनने मृत्यु से जीतने के लिये मृतसंजीवनी नामक महामन्त्र की रचना की थी। समाज को सबसे बड़े भय से मुक्त करने की कविता लिखी थी। फिर एक स्थान पर कविं पुराणम् अनुशासितारम् कहकर कवि को सर्वज्ञ माना गया है। एक और स्थान पर कर्म और अकर्म की गहनता बताते हुए भगवान् वासुदेव कहते हैं॰॰॰ किं कर्मं किमकर्मञ्च कवयोऽपि विमोहिताः अर्थात् कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसको समझना इतना कठिन है कि यहाँ कविजन तक भ्रमित हो जाते हैं कहने का तात्पर्य है कि सामान्यतः सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य को समझ लेना कवि का कार्य है। अतः जिन लोगों ने दुनियाँ के तमाम रहस्यों को उद्घाटित करके जन सामान्य को जीवन जीने की कला सिखाई है वास्तव में वे ही कवि कहलाने के हकदार हैं।

कविता कोश के पन्नों को पलटने से जो कवि इस कसौटी पर खरे उतरते हैं उनमें आधुनिक काल के शायर अकबर इलाहाबादी का नाम नहीं भूला जा सकता। उनका एक-एक शेर जीवन के सूक्ष्म रहस्यों का उद्घाटित करता है। जीवन का शाश्वत सत्य किसी धर्म, सम्प्रदाय के अनुसार अलग-अलग नहीं होता अपितु सम्पूर्ण मानव का सत्य एक ही है। अकबर इलाहाबादी के शेर वही बात कहते हैं जो गीता के श्लोक बार-बार कहते आ रहे हैं। कहीं कहीं तो लगता है जैसे गीता के श्लोक का उर्दू में अनुवाद किया गया हो। देखें गीता का यह श्लोक ॰॰॰॰
त्यक्त्वा कर्म फलासंगं नित्यतृप्तः निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित् करोति सः।।
अर्थात कर्म के फल की आसक्ति का सर्वथा त्याग करके नित्य तृप्त और निराश्रित रहते हुए कर्म करने वाला व्यक्ति सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता, अर्थात् कर्म बन्धन से मुक्त रहता है। अब देखिये अकबर इलाहाबादी अपने शब्दों में यही बात कैसे कहते हैं॰॰॰
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ ।।

यही है जीवन जीने की कला। जब कुछ न खरीदना हो और न बेचना हो तब बाजार में निकल कर देखें तो आनन्द ही आनन्द दिखाई देगा। वहाँ जो खरीदने बेचने आये हैं उनके चेहरों पर तनाव दिखेगा, क्योंकि वे लाभ॰॰॰ हानि के बन्धन में फंसे हुए होते हैं। आप उन्हें देखकर बिना हंसे नहीं रह सकते।

दुनियाँ के अधिकांश लोग भौतिक विषयों के उपभोग को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं पर बाद में पता चलता है कि भोगाः न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः अर्थात् हम भोगों को नहीं भोग सके और भोगों ने हमको ही भोग लिया है। तब कवि उसका समाधान बताता है॰॰॰
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते।।

अर्थात् जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। इसी बात को शायर इस तरह कहता है॰॰॰
ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ ।।

मनुष्य की इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। जितना उन्हें पूरा करने की कोशिश की जाती है उतनी ही बढती जाती हैं। तब गीता का गायक घोषणा करता है॰॰॰
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।

अर्थात् जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता अहंकार और स्पृहा रहित हुआ जीवन जीता है वह परम शान्ति को प्राप्त होता है। लगता है शायर को अच्छी तरह पता है कि बिना किसी लांछन के जीवन जी कर चले जाना कितना कितना महत्वपूर्ण है तभी वह कह पाता है॰॰॰

इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त, नक़्श ब-दीवार नहीं हूँ ।।

इसी तरह अकबर इलाहाबादी जी ने भारतीय दर्शन के तथ्यों को अपनी सहज भाषा में व्यकत किया है, जिसका प्रभाव जनमानस पर निश्चित रूप से हुआ।


शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

हरिजन गाथा / नागार्जुन





हरिजन गाथा / नागार्जुन
(एक)

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था !
महसूस करने लगीं वे
एक अनोखी बेचैनी
एक अपूर्व आकुलता
उनकी गर्भकुक्षियों के अन्दर
बार-बार उठने लगी टीसें
लगाने लगे दौड़ उनके भ्रूण
अंदर ही अंदर
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था कि
हरिजन-माताएं अपने भ्रूणों के जनकों को
खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था कि
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं--
तेरह के तेरह अभागे--
अकिंचन मनुपुत्र
ज़िन्दा झोंक दिये गये हों
प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में
साधन सम्पन्न ऊंची जातियों वाले
सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था कि
महज दस मील दूर पड़ता हो थाना
और दारोगा जी तक बार-बार
ख़बरें पहुंचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की

और, निरन्तर कई दिनों तक
चलती रही हों तैयारियां सरेआम
(किरासिन के कनस्तर, मोटे-मोटे लक्क्ड़,
उपलों के ढेर, सूखी घास-फूस के पूले
जुटाये गए हों उल्लासपूर्वक)
और एक विराट चिताकुंड के लिए
खोदा गया हो गड्ढा हंस-हंस कर
और ऊंची जातियों वाली वो समूची आबादी
आ गई हो होली वाले 'सुपर मौज' मूड में
और, इस तरह ज़िन्दा झोंक दिए गए हों

तेरह के तेरह अभागे मनुपुत्र
सौ-सौ भाग्यवान मनुपुत्रों द्वारा
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...


(दो)


चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग
ऎसा नवजातक
न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !
पैदा हुआ है दस रोज़ पहले अपनी बिरादरी में
क्या करेगा भला आगे चलकर ?
रामजी के आसरे जी गया अगर
कौन सी माटी गोड़ेगा ?
कौन सा ढेला फोड़ेगा ?
मग्गह का यह बदनाम इलाका
जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से
पैदा हुआ बेचारा--
भूमिहीन बंधुआ मज़दूरों के घर में
जीवन गुजारेगा हैवान की तरह
भटकेगा जहां-तहां बनमानुस-जैसा
अधपेटा रहेगा अधनंगा डोलेगा
तोतला होगा कि साफ़-साफ़ बोलेगा
जाने क्या करेगा
बहादुर होगा कि बेमौत मरेगा...
फ़िक्र की तलैया में खाने लगे गोते
वयस्क बुजुर्ग दोनों, एक ही बिरादरी के हरिजन
सोचने लगे बार-बार...
कैसे तो अनोखे हैं अभागे के हाथ-पैर
राम जी ही करेंगे इसकी खैर
हम कैसे जानेंगे, हम ठहरे हैवान
देखो तो कैसा मुलुर-मुलुर देख रहा शैतान !
सोचते रहे दोनों बार-बार...

हाल ही में घटित हुआ था वो विराट दुष्कांड...
झोंक दिए गए थे तेरह निरपराध हरिजन
सुसज्जित चिता में...

यह पैशाचिक नरमेध
पैदा कर गया है दहशत जन-जन के मन में
इन बूढ़ों की तो नींद ही उड़ गई है तब से !
बाकी नहीं बचे हैं पलकों के निशान
दिखते हैं दृगों के कोर ही कोर
देती है जब-तब पहरा पपोटों पर
सील-मुहर सूखी कीचड़ की

उनमें से एक बोला दूसरे से
बच्चे की हथेलियों के निशान
दिखलायेंगे गुरुजी से
वो ज़रूर कुछ न कु़छ बतलायेंगे
इसकी किस्मत के बारे में

देखो तो ससुरे के कान हैं कैसे लम्बे
आंखें हैं छोटी पर कितनी तेज़ हैं
कैसी तेज़ रोशनी फूट रही है इन से !
सिर हिलाकर और स्वर खींच कर
बुद्धू ने कहा--
हां जी खदेरन, गुरु जी ही देखेंगे इसको
बताएंगे वही इस कलुए की किस्मत के बारे में
चलो, चलें, बुला लावें गुरु महाराज को...

पास खड़ी थी दस साला छोकरी
दद्दू के हाथों से ले लिया शिशु को
संभल कर चली गई झोंपड़ी के अन्दर

अगले नहीं, उससे अगले रोज़
पधारे गुरु महाराज
रैदासी कुटिया के अधेड़ संत गरीबदास
बकरी वाली गंगा-जमनी दाढ़ी थी
लटक रहा था गले से
अंगूठानुमा ज़रा-सा टुकड़ा तुलसी काठ का
कद था नाटा, सूरत थी सांवली
कपार पर, बाईं तरफ घोड़े के खुर का
निशान था
चेहरा था गोल-मटोल, आंखें थीं घुच्ची
बदन कठमस्त था...
ऎसे आप अधेड़ संत गरीबदास पधारे
चमर टोली में...

'अरे भगाओ इस बालक को
होगा यह भारी उत्पाती
जुलुम मिटाएंगे धरती से
इसके साथी और संघाती

'यह उन सबका लीडर होगा
नाम छ्पेगा अख़बारों में
बड़े-बड़े मिलने आएंगे
लद-लद कर मोटर-कारों में

'खान खोदने वाले सौ-सौ
मज़दूरों के बीच पलेगा
युग की आंचों में फ़ौलादी
सांचे-सा यह वहीं ढलेगा

'इसे भेज दो झरिया-फरिया
मां भी शिशु के साथ रहेगी
बतला देना, अपना असली
नाम-पता कुछ नहीं कहेगी

'आज भगाओ, अभी भगाओ
तुम लोगों को मोह न घेरे
होशियार, इस शिशु के पीछे
लगा रहे हैं गीदड़ फेरे

'बड़े-बड़े इन भूमिधरों को
यदि इसका कुछ पता चल गया
दीन-हीन छोटे लोगों को
समझो फिर दुर्भाग्य छ्ल गया

'जनबल-धनबल सभी जुटेगा
हथियारों की कमी न होगी
लेकिन अपने लेखे इसको
हर्ष न होगा, गमी न होगी

'सब के दुख में दुखी रहेगा
सबके सुख में सुख मानेगा
समझ-बूझ कर ही समता का
असली मुद्दा पहचानेगा

'अरे देखना इसके डर से
थर-थर कांपेंगे हत्यारे
चोर-उचक्के-गुंडे-डाकू
सभी फिरेंगे मारे-मारे

'इसकी अपनी पार्टी होगी
इसका अपना ही दल होगा
अजी देखना, इसके लेखे
जंगल में ही मंगल होगा

'श्याम सलोना यह अछूत शिशु
हम सब का उद्धार करेगा
आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का
बेड़ा सचमुच पार करेगा

'हिंसा और अहिंसा दोनों
बहनें इसको प्यार करेंगी
इसके आगे आपस में वे
कभी नहीं तकरार करेंगी...'

इतना कहकर उस बाबा ने
दस-दस के छह नोट निकाले
बस, फिर उसके होंठों पर थे
अपनी उंगलियों के ताले

फिर तो उस बाबा की आंखें
बार-बार गीली हो आईं
साफ़ सिलेटी हृदय-गगन में
जाने कैसी सुधियां छाईं

नव शिशु का सिर सूंघ रहा था
विह्वल होकर बार-बार वो
सांस खींचता था रह-रह कर
गुमसुम-सा था लगातार वो

पांच महीने होने आए
हत्याकांड मचा था कैसा !
प्रबल वर्ग ने निम्न वर्ग पर
पहले नहीं किया था ऐसा !

देख रहा था नवजातक के
दाएं कर की नरम हथेली
सोच रहा था-- इस गरीब ने
सूक्ष्म रूप में विपदा झेली

आड़ी-तिरछी रेखाओं में
हथियारों के ही निशान हैं
खुखरी है, बम है, असि भी है
गंडासा-भाला प्रधान हैं

दिल ने कहा-- दलित माओं के
सब बच्चे अब बागी होंगे
अग्निपुत्र होंगे वे अन्तिम
विप्लव में सहभागी होंगे

दिल ने कहा--अरे यह बच्चा
सचमुच अवतारी वराह है
इसकी भावी लीलाओं की
सारी धरती चरागाह है

दिल ने कहा-- अरे हम तो बस
पिटते आए, रोते आए !
बकरी के खुर जितना पानी
उसमें सौ-सौ गोते खाए !

दिल ने कहा-- अरे यह बालक
निम्न वर्ग का नायक होगा
नई ऋचाओं का निर्माता
नए वेद का गायक होगा

होंगे इसके सौ सहयोद्धा
लाख-लाख जन अनुचर होंगे
होगा कर्म-वचन का पक्का
फ़ोटो इसके घर-घर होंगे

दिल ने कहा-- अरे इस शिशु को
दुनिया भर में कीर्ति मिलेगी
इस कलुए की तदबीरों से
शोषण की बुनियाद हिलेगी

दिल ने कहा-- अभी जो भी शिशु
इस बस्ती में पैदा होंगे
सब के सब सूरमा बनेंगे
सब के सब ही शैदा होंगे

दस दिन वाले श्याम सलोने
शिशु मुख की यह छ्टा निराली
दिल ने कहा--भला क्या देखें
नज़रें गीली पलकों वाली
थाम लिए विह्वल बाबा ने
अभिनव लघु मानव के मृदु पग
पाकर इनके परस जादुई

भूमि अकंटक होगी लगभग
बिजली की फुर्ती से बाबा
उठा वहां से, बाहर आया
वह था मानो पीछे-पीछे
आगे थी भास्वर शिशु-छाया

लौटा नहीं कुटी में बाबा
नदी किनारे निकल गया था
लेकिन इन दोनों को तो अब
लगता सब कुछ नया-नया था

(तीन)


'सुनते हो' बोला खदेरन
बुद्धू भाई देर नहीं करनी है इसमें
चलो, कहीं बच्चे को रख आवें...
बतला गए हैं अभी-अभी
गुरु महाराज,
बच्चे को मां-सहित हटा देना है कहीं
फौरन बुद्धू भाई !'...
बुद्धू ने अपना माथा हिलाया
खदेरन की बात पर
एक नहीं, तीन बार !
बोला मगर एक शब्द नहीं
व्याप रही थी गम्भीरता चेहरे पर
था भी तो वही उम्र में बड़ा
(सत्तर से कम का तो भला क्या रहा होगा !)
'तो चलो !
उठो फौरन उठो !
शाम की गाड़ी से निकल चलेंगे
मालूम नहीं होगा किसी को...
लौटने में तीन-चार रोज़ तो लग ही जाएंगे...
'बुद्धू भाई तुम तो अपने घर जाओ
खाओ,पियो, आराम कर लो
रात में गाड़ी के अन्दर जागना ही तो पड़ेगा...
रास्ते के लिए थोड़ा चना-चबेना जुटा लेना
मैं इत्ते में करता हूं तैयार
समझा-बुझा कर
सुखिया और उसकी सास को...'

बुद्धू ने पूछा, धरती टेक कर
उठते-उठते--
'झरिया,गिरिडिह, बोकारो
कहां रखोगे छोकरे को ?
वहीं न ? जहां अपनी बिरादरी के
कुली-मज़ूर होंगे सौ-पचास ?
चार-छै महीने बाद ही
कोई काम पकड़ लेगी सुखिया भी...'
और, फिर अपने आप से
धीमी आवाज़ में कहने लगा बुद्धू
छोकरे की बदनसीबी तो देखो
मां के पेट में था तभी इसका बाप भी
झोंक दिया गया उसी आग में...
बेचारी सुखिया जैसे-तैसे पाल ही लेगी इसको
मैं तो इसे साल-साल देख आया करूंगा
जब तक है चलने-फिरने की ताकत चोले में...
तो क्या आगे भी इस कलु॒ए के लिए
भेजते रहेंगे खर्ची गुरु महाराज ?...

बढ़ आया बुद्धू अपने छ्प्पर की तरफ़
नाचते रहे लेकिन माथे के अन्दर
गुरु महाराज के मुंह से निकले हुए
हथियारों के नाम और आकार-प्रकार
खुखरी, भाला, गंडासा, बम तलवार...
तलवार, बम, गंडासा, भाला, खुखरी...

(१९७७ में रचित,'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' नामक संग्रह से)



लेख: विजय गौड़


साहित्य में दलित धारा की वर्तमान चेतना ने दलितोद्धार की दया, करूणा वाली अवधारणा को ही चुनौती नहीं दी बल्कि जातीय आधार पर अपनी पहचान को आरोपित ढंग से चातुवर्ण वाली व्यवस्था में शामिल होने को संदेह की दृष्टि से देखना शुरू किया है। दलित धारा के चर्चित विद्धान कांचा ऐलयया की पुस्तक ’व्हाई आई एम नॉट हिन्दू’ इसका स्पष्ट साक्ष्य है। वहीं हिन्दी की दलित धारा के विद्वान ओम प्रकाश वाल्मिकी की पुस्तक ’सफ़ाई देवता’ को भी देखा जा सकता है। चातुवर्णय व्यवस्था की मनुवादी अवधारणा को सिरे से खारिज करते हुए दलितों को शूद्र मानने से दोनों ही विद्वान इंकार करते हैं। हिन्दी साहित्य में दलित धारा का शुरूआती दौर इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है, इसीलिए वह प्रेमचन्द के आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद से भी टकराता रहा है। यानी वह घर्षण-संघर्ष जो अभी तक की स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे रहा है, दलित धारा की वर्तमान चेतना के आलोचना के औजार को और पैना करने की दृष्टि से सम्पन्न माना जा सकता है। दलितोद्धार की दया, करूणा वाली अवधारणा, जो ’हरिजन’ शब्दावली के रूप में सामने आई, वह भी अब अस्वीकार्य हुई है। यहाँ अभी तक के प्रगतिशील विचार पर शक नहीं, पर उसकी सीमाओं को भी चिह्नित किया जा सकता है। बात को थोड़ा और स्पष्ट करते हुए कहें तो दलित साहित्य ने उस भारतीय समाज की सीवनों को उधेड़ना शुरू कर दिया है जो पूंजीवादी विकास के आधे-अधूरे छद्म और सामंती गठजोड़ पर टिका है। यहाँ दलित धारा की इस चेतना पर भी सवाल उठा हुआ है कि इस सच को उद्घाटित कर देने के बाद सामाजिक बदलाव के संघर्ष की उसकी दिशा कैसे अलग है?

यह सारे सवाल जिन कारणों से मौजू हुए हैं उसमें नागार्जुन की कविता ’हरिजन गाथा’ का मेरा पाठ कुछ ऐसे ही सवालों के साथ है। लेकिन यहाँ यह बात भी साफ़ है कि ’हरिजन गाथा’ के उन प्रगतिशील तत्वों को अनदेखा नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने के वक़्त तक मौजू थे। जैसे लाख तर्क-वितर्क के बाद भी प्रेमचंद के रचना-संसार में दलितों के प्रति मानवीय मूल्यों को दरकिनार करना संभव नहीं, वैसे ही
’हरिजन गाथा’ के उस उत्स से इंकार नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने की वजह है और जिसमें जातिगत आधार पर होने वाले नरसंहारों का निषेध है।

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था, बावजूद इसके जो कुछ भी हुआ था, वह अमानवीय था। यातनादायक। हरिजन गाथा ऐसे ही नरसंहार को निशाने पर रखती है और उन स्थितियों की ओर भी संकेत करती है जो इस अमानवीयता के खिलाफ एक नये युग का सूत्रपात जैसी ही हैं।

चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग
ऐसा नवजातक
न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !

जीवन के उल्लास का यह रंग जिस अमानवीय और हिंसक प्रवृत्ति के कारण है यदि उसे ’हरिजन गाथा’ में ही देखें तभी इसके होने की संभावनाओं पर चकित होते वृद्धों की आशंका को समझा जा सकता है।

यातनादायी, अमानवीय जीवन के खिलाफ़ शुरू हुए दलित उभार को देखें तो उसकी उस हिंसक प्रवृत्ति को भी समझा जा सकता है जो शुरूआती दौर में राजनीतिक नारे के रूप में "तिलक, तराजू और तलवार" जैसी आक्रामकता के साथ दिखाई दी थी और साहित्य में प्रेमचंद की कहानी ’कफ़न’ पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए अभिव्यक्त हुई थी। यह अलग बात है कि अब न तो साहित्य में और न ही राजनीति में दलित उभार की वह आक्रामकता दिखाई दे रही है। वह उसी रूप में रह भी नहीं सकती थी। उसे तो और ज्यादा स्पष्ट होकर संघर्ष की मूर्तता को ग्रहण करना था। पर यहाँ भारतीय आज़ादी के संभावनाशील आंदोलन के अन्त का वह युग जिसके शिकार खुद विचारवान समाजशास्त्री अम्बेडकर भी हुए ही, इसकी सीमा बना है। और इसी वजह से संघर्ष की जनवादी दिशा को बल प्रदान करने की बजाय यथास्थितिवाद की जकड़ ने संघर्ष की उस जनवादी चेतना को दलित आदिवासी गठजोड़ के रूप में बदलकर उसे एक मूर्त रूप देने की बजाय उससे परहेज किया है और अभी तक के तमाम प्रगतिशील आंदोलन की वह राह जो मध्यवर्गीय जीवन की चाह के साथ ही दिखाई दी, अटकी हुई है। हाँ, वर्षों की गुलामी के जुए को उतार फेंकने की आवाज़ें जरूर स्पष्ट हुई हैं। हिचक, संकोचपन और दब्बू बने रहने की बजाय जातिगत आधार पर चौथे पायदान की यह हलचल एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हो और ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश आवाम के जीवन की खुशहाली के लिए भी संघर्षरत हो, नागार्जुन की कविता ’हरिजन गाथा’ का एक यह पाठ तो बनता ही है।

संघर्ष के लिए लामबंदी को शुरूआती रूप में ही हिंसक ढंग से कुचलने की कार्रवाइयों की ख़बरे कोई अनायास नहीं मिलतीं। उच्च जाति के साधन सम्पन्न वर्गो की हिंसा को (जो बेलछी से झज्जर तक जारी है ) इन्हीं निहितार्थों में समझा जा सकता है।

नागार्जुन की कविता ’हरिजन गाथा’ कि ये पंक्तियाँ समाजशास्त्रीय विश्लेषण की डिमांड करती हैं। नागार्जुन उस सभ्य समाज से, जो हरिजनउद्वार के समर्थक भी हैं, प्रश्न करते हुए देखें जा सकते हैं --

"ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
हरिजन माताएँ अपने भ्रूणों के जनकों को
खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।"
"एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं
तेरह के तेरह अभागे
अकिंचन मनुपुत्र
जिन्दा झोंक दिये गये हों
प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में
साधन सम्पन्न ऊंची जातियों वाले
सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !"
"ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
महज दस मील दूर पड़ता हो थाना
और दारोगा जी तक बार-बार
ख़बरें पहुँचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की"

नागार्जुन समाजिक रूप से एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। वे अमानवीय कार्रवाइयों का पर्दाफाश करना अपने फ़र्ज समझते हैं और श्रम के मूल्य की स्थापना के चेतना से सम्पन्न कवि हो जाते हैं। खुद को हारने में जीत की खुशी का जश्न मानने वाली गतिविधि के बजाय वे सवाल करते हैं। हिन्दी कविता का यह जनपक्ष रूप ही वह आरम्भिक बिन्दु भी है। सामाजिक बदलाव के सम्पूर्ण क्रान्ति वाले रूप को ऐसी ही रचनाओं से बल मिला है। वे रचनाएँ उस नवजात शिशु चेतना के विरुद्ध हिंसक होते साधन-सम्पन्न उच्च जातियों के लोगों से आतंकित नहीं होती बल्कि उनसे हमें सचेत करती है तथा नई चेतना के पैदा होने की अवश्यम्भाविता को चिहि्नत करती है--

"श्याम सलोना यह अछूत शिशु
हम सब का उद्धार करेगा
आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का
बेड़ा सचमुच पार करेगा
हिंसा और अहिंसा दोनों
बहनें इसको प्यार करेंगी
इसके आगे आपस में वे
कभी नहीं तकरार करेंगी..."


सोमवार, 13 अप्रैल 2009

दुष्यन्त की आग


कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ाअरा तो है नज़र के लिए

वो मुतमुइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

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दुष्यन्त कुमार जी की यह कविता और अन्य कविताएं आप कविता कोश में यहां पढ़ सकते हैं ।

लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे


दुनियाँ के जाने माने महान विचारक , ओशो , ने कवि और कविता के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ॰॰


"कवि विश्व का सबसे असंतुष्ट प्राणी होता है। वह कुछ कहना चाहता है, पर कह नहीं पाता, इसलिये बार बार कहता है, फिर भी उसे संतोष नहीं मिलता। उनका मानना था कि कोई भी कवि जीवन भर एक ही बात को अलग अलग अन्दाज में अलग अलग ढंग से और अलग अलग शब्दों के द्वारा कहता
है। किसी भी साहित्यकार के सम्पूर्ण साहित्य को ध्यान पूर्वक देखा जाये पता चलेगा कि वह किसी एक सत्य को उद्घाटित करना चाहता है। जिस सत्य का उसने अनुभव किया है उसे अन्य लोगों तक पहुँचाना चाहता है।"

गोस्वामी तुलसी दास का पूरा साहित्य आदर्श मानव की परिकल्पना के द्वारा समाज में राम राज्य की स्थापना करना चाहता है। कबीर का पूरा साहित्य धर्म के बाह्य आडम्बरों को हटा कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना का संदेश है। मीरा का साहित्य सात्विक प्रेम की महत्ता को स्थापित करता है, तो सूरदास का साहित्य वात्सल्य प्रेम से परिचित कराता है। महाकवि निराला का साहित्य शोषण के विरुद् जन चेतना जाग्रत करता दिखाई देता है।

इस सिद्धान्त को दृष्टिगत रखते हुए कविता कोश के कवियो पर नजर डाली तो लगा कि बात बिल्कुल सौ प्रतिशत सही है

हर कवि का एक निश्चित संदेश होता है, अलग कहने का ढंग होता है,एक खास तेवर के साथ साथ भाषा भी उसकी अपनी अलग ही होती है। आइये आज हिन्दी साहित्य में गजल को प्रतिष्ठापित करने वाले कवि दुष्यन्त कुमार के काव्य पर नजर डालें।


दुषंयन्त कुमार के संपूर्ण साहित्य में स्वातन्त्र्योत्तर भारत में व्याप्त अव्यवस्था के विरुद्ध शंख नाद सुनाई देता है। आजादी के बाद राष्ट्र की जनता ने राम राज्य का सपना देखा था ,पर अवसरवादी रजनीतिज्ञों ने उसे जल्दी ही तोड़ दिया। तब दुष्यन्त जी को कहना पड़ा॰॰॰

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यह लिखने में उन्हें कोई आनन्द नहीं आया था और न ही किसी प्रकार का सन्तोष मिला था ,किन्तु अव्यवस्था के विरुद्ध अपने हृदय में आग की ज्वाला लिये वे स्वयं कहते हैं॰॰॰

सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

जब किसी ने उनसे अज्ञानता से ग्रसित निरक्षर और प्रसुप्त चेतना वाले बहुसंख्यक नागरिकों की ओर ध्यान दिलाते हुए पूछा कि क्या आपकी आबाज इनको जगा भी पायेगी ? तब वे आशावादी दृष्टिकोण से उत्तर देते हैं...

राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख
वे बार बार कहते हैं कि आग लगाने के लिये एक चिनगारी काफी होती है॰॰॰॰
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

सूरज ,प्रकाश, दीपक,चिनगारी आदि शब्द जाग्रति के सूचक हैं। कवि कहीं से और किसी के भी माध्यम से चेतना जाग्रत करना चाहता है॰॰॰॰मेरी तो आदत हैरोशनी जहाँ भी होउसे खोज लाऊँगा अपने द्वारा किए गये प्रयास से जब यथेच्छ सफलता नहीं मिलती तो कवि निराश नहीं होता और कहता है कि अंतिम क्षण तक प्रयास छोड़ें नहीं क्यों कि आने वाली पीढी उसे आगे बढायेगी॰॰

थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे ।

अपेक्षित विकास न हो पाने से दुखी कवि फिर एक नये अन्दाज मे् वही बात कहता है॰॰॰॰

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
इसी को और स्पष्ट करते हुए दूसरे शब्दों में फिर कहते हैं॰॰॰

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

व्यवस्था बदलने के प्रयास में खड़े होने वाले हंगामों से अपने को दूर करते हुए कवि किसी भी तरह से परिवर्तन चाहता हे। इसमें जो भी सहयोगी हो उसका स्वागत है॰॰॰

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चा
हिए।

व्यवस्था पर चोट करता हुआ फिर एक नया अन्दाज ए बयाँ देखिये॰॰॰॰॰

इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं
जब किसी ने उन्हें सतही तथाकथित विकास दिखाने की कोशिश की तो फिर उन्होंने नये शब्दों में वही बात कही॰॰॰

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं

मूल भूत प्राकृतिक सुविधाएँ छीन लेने वाले लोग जब आपको झुनझुना पकड़ाकर दाता बनने की कोशिश करते हैँ तब कवि कह उठता है॰॰

कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही
दुष्यन्त कुमार का पूरा साहित्य दुर्व्यवस्था के खिलाफ हल्ला बोल अभियान की तरह प्रारम्भ हुआ बाद में उसे हवा मिली और अब अँगीठी जल पड़ी है धुआँ छटता दिखाई देता है॰॰॰

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुआं
----



रविवार, 12 अप्रैल 2009

आँसू / श्रीकृष्ण सरल




आँसू / श्रीकृष्ण सरल
जो चमक कपोलों पर ढुलके मोती में है
वह चमक किसी मोती में कभी नहीं होती,
सागर का मोती, सागर साथ नहीं लाता
अन्तर उंडेल कर ले आता कपोल मोती।
रोदन से, भारी मन हलका हो जाता है
रोदन में भी आनन्द निराला होता है,
हर आँसू धोता है मन की वेदना प्रखर
ताजगी और वह हर्ष अनोखा बोता है।
आँसू कपोल पर लुढ़क-लुढ़क जब बह उठते
लगता हिम-गिरि से गंगाजल बह उठता है,
हैं कौन-कौन से भाव हृदय में घुमड़ रहे
हर आँसू जैसे यह सब कुछ कह उठता है।
सन्देह नहीं, आँसू पानी तो होते ही
वे तरल आग हैं, और जला सकते हैं वे,
उनमें इतनी क्षमता भूचाल उठा सकते
उनमें क्षमता, पत्थर पिघला सकते हैं वे।
आँसू दुख के ही नही, खुशी के भी होते
जब खुशी बहुत बढ़ जाती, रोते ही बनता,
आधिक्य खुशी का, कहीं न पागल कर डाले
अतिशय खुशियों को, रोकर धोते ही बनता।
भावातिरेक से भी रोना आ जाता है
ऐसे रोदन को कोई रोक नहीं पाता,
रोने वाला, निस्र्पाय खड़ा रह जाता है
आगमन आँसुओं का, वह रोक नहीं पाता।
जो व्यक्ति फफक कर जीवन में रोया न कभी
उसके जीवन में कुछ अभाव रह जाता है,
दुख प्रकट न हो, भारी अनर्थ होकर रहता
रो पड़ने से, वह सारा दुख बह जाता है।
इतिहास आँसुओं ने रच डाले कई-कई
हो विवश शक्ति उनने अपनी दिखलाई है,
वे रहे महाभारत की संरचना करते
सोने की लंका भी उनने जलवाई है।


श्रीकृष्ण सरल जी की यह कविता और अन्य कई कविताएं कविता कोश में यहां पढी जा सकती हैं ।

लेख : शास्त्री नित्य गोपाल कटारे

मैं आज कविता कोश के उस पन्ने की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, जिसका रचयिता भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी कलम को तलवार बनाकर युद्ध में जूझता रहा। जिसने 15 महाकाव्य सहित 124 पुस्तकों का सृजन किया। जिसने अपनी पुस्तकें स्वयं के खर्चे पर प्रकाशित कराने के लिए अपनी ज़मीन ज़ायदाद बेच दी। जिसने अपनी पुस्तकें पूरे देश भर में घूम-घूम कर लोगों तक पहुँचायीं और अपनी पुस्तकों की 5 लाख प्रतियाँ बेची, लेकिन अपने लिए कुछ नहीं रखा। जो धनराशि मिली वह शहीदों के परिवारों के लिए चुपचाप समर्पित करता रहा। महाकवि होने के बाद भी जिसकी यह आकांक्षा रही कि उसे कवि या महाकवि नहीं बल्कि 'शहीदों का चारण' के नाम से पहचाना जाये।ऍसा व्यक्तित्व प्रचार का भूखा नहीं होता और न उसका प्रचार हुआ। व्यक्तिगत स्तर पर भी नहीं और शासन स्तर पर भी नहीं। लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास है आने वाली पीढियाँ इस महान व्यक्तित्व के धनी, क्रान्तिकारियों के गुणगान करने और देशसेवा का व्रत लेने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महाकवि श्रीकृष्ण सरल को श्रृद्धा के साथ याद करेंगी और उनकी कालजयी देशभक्तिपूर्ण कविताओं को गुनगुनायेंगी।
' दुनियाँ की सबसे पहली कविता महर्षि वाल्मीकि के द्वारा तब रची गयी ,जब आकाश में स्वच्छन्द विचरण करते हुए क्रौञ्च पक्षियों के काम मोहित जोड़े में से एक को व्याध द्वारा मार दिया गया। क्रौञ्च को लहूलुहान धरती पर तड़फते देखकर कौञ्ची अत्यन्त करुणा युक्त होकर विलाप करने लगी। तब वहाँ उपस्थित महर्षि वाल्मीकि के हृदय से करुणा शब्दों के रूप में निकली ॰॰॰

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वामगमः शाश्वती समाः।
यत् क्रौञ्च मिथुनादेकमवधीः काम मोहितम्।।
करुण रस को रसों का राजा माना जाता है। करुण रस को प्रकट करने के लिये आँसू से बढकर कोई साधन नहीं है.।इसीलिये ऐसा कवि खोजना मुश्किल है जिसने आँसू को अपनी कविता का आश्रय न बनाया हो। लेकिन जिस तरह श्रीकृष्ण सरल ने आँसू के सभी पक्षों ,उसकी सारी शक्तियों का वर्णन बहुत सुन्दर शब्दों में किया है, वह अद्भुत है।
सन्देह नहीं, आँसू पानी तो होते ही
वे तरल आग हैं, और जला सकते हैं वे,
उनमें इतनी क्षमता भूचाल उठा सकते
उनमें क्षमता, पत्थर पिघला सकते हैं वे।

हँसने के लाभ तो बाबा रामदेव जी से लेकर आधुनिक लाफ्टर शो के संचालक बताते नहीं थकते , पर रोने के भी लाभ होते हैं ,यह बात सरल जी को भली भाँति पता है॓॰॰॰॰॰
रोदन से, भारी मन हलका हो जाता है
रोदन में भी आनन्द निराला होता है,
हर आँसू धोता है मन की वेदना प्रखर
ताजगी और वह हर्ष अनोखा बोता है।
आँसू न केवल दुःखातिरेक के सूचक होते हैं वल्कि प्रेमातिरेक और हर्षातिरेक को प्रकट करने में भी वे ही काम आते हैं। लगता है कवि ने अपने जीवन में सभी प्रकार के आँसुओं का साक्षात्कार किया है, तभी तो पूरे आत्मविश्वास से कह पाता है॰॰॰॰
आँसू दुख के ही नही, खुशी के भी होते
जब खुशी बहुत बढ़ जाती, रोते ही बनता,
आधिक्य खुशी का, कहीं न पागल कर डाले
अतिशय खुशियों को, रोकर धोते ही बनता।
कवि की सुस्पष्ट घोषणा है कि जो व्यक्ति फफक फफक कर रोना नहीं जानता उसका जीवन अधूरा है। उनका मानना हे कि जो व्यक्ति खुलकर कभी रोया ही न हो कुण्ठा ग्रस्त होकर दुःखों से भर जाता है।जो
व्यक्ति फफक कर जीवन में रोया न कभी
उसके जीवन में कुछ अभाव रह जाता है,
दुख प्रकट न हो, भारी अनर्थ होकर रहता
रो पड़ने से, वह सारा दुख बह जाता है।
आँसू निकले और कोई परिणाम न हो ऐसा सम्भव नहीं है। जहाँ दुनियाँ में बड़ी से बड़ी समस्या आँसू से सुलझी है वहीं आँसुओं के कारण ही बड़ी समस्यायें खड़ी भी हुई हैं। कहा जा सकता है कि हर बड़ी घटना में कहीं न कहीं आँसू की भूमिका होती है॰॰॰॰
इतिहास आँसुओं ने रच डाले कई-कई
हो विवश शक्ति उनने अपनी दिखलाई है,
वे रहे महाभारत की संरचना करते
सोने की लंका भी उनने जलवाई है।
अन्त में महाकवि सरल जी के साहित्य को कविता कोश में स्थापित करने के लिये कविता कोश टीम को धन्यबाद देता हूँ और उस महान साहित्यकार को विनम्र श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ




मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

नदी / केदारनाथ सिंह


लेख - डा० जगदीश व्योम
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हमें खुशी है कि डा. जगदीश व्योम जी ने हमारे लिये नियमित रूप से लिखना स्वीकार कर लिया है । अब आप हर गुरुवार की सुबह उन्हें इस ब्लौग पर पढ़ सकेंगे ।
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नदी /केदारनाथ सिंह
रचनाकाल : १९८३

अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में


सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई

कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!


केदारनाथ सिंह जी की यह कविता और बहुत सी अन्य कविताएं आप कविता कोश पर यहाँ पढ सकते हैं ।

कविता कोश के पन्नो को पढ़ते पढ़ते नई कविता के बड़ी कद काठी के कवि केदारनाथ सिंह की कविता नदी ने मुझे आकर्षित किया। आकर्षित क्या एक तरह से बाँध लिया। कविता मन को छू गई। लगा कि बड़ा कवि यूँ ही बड़ा नहीं होता न जाने कितनी गहराई में उतरकर सृजन की नींव रखता है। वह कुछ अलग तरह से सोचता। संस्कृत , सभ्यता, लोकतत्व, भाषाई सिद्धपन उसमें रच-बस जाते हैं। वह सकारात्मक सोचता है, सामान्य बोलचाल के लहजे में लिखता है, अपना पांडित्व प्रदर्शन नहीं करता बल्कि सामान्य जन की दृष्टि से भी देखता है। निराशा में आशा की किरण उसे दिखाई देती है, पतझर में भी वसंत के आगमन की पदचाप सुनाई दे जाती है। वह मानवता को, व्यवस्था को देखता नहीं फिरता बल्कि मानवमूल्यों का संचार जन-जन में करने का प्रयास करता है। यह सब विशेषताएँ उसे सबसे अलग श्रेणी में खड़ा करती हैं।

कवि केदारनाथ सिंह की "नदी" कविता उनके प्रसिद्ध संग्रह "अकाल में सारस" से ली गई है। "नदी" वास्तव में केवल बहते हुए जल की धारा मात्र नहीं है, वह हमारा जीवन है, हमारा प्राणतत्त्व है, हमारी संस्कृत का जीवंत रूप है, हमारी सभ्यता की जननी है। नदी हमारी रग-रग में दौड़ रही है। इस कविता में "नदी" का फलक बहुत व्यापक है। यदि हम धीरे से पूरे मनोयोग के साथ नदी के विषय में सोचें तो हम अपनी संस्कृति के विषय में विचार करें, उससे रागात्मक रूप से जुड़ने के लिए संवाद करें तो हम पूरी तरह से स्वयं को नदी से (अपनी संस्कृति और सभ्यता से) जुड़ा हुआ पाते हैं। परंतु यदि अति आधुनिकता के भ्रामक प्रवाह में बहकर अपनी संस्कृति, सभ्यता को तिलांजलि देते हुए उसे हेय दृष्टि से देखते हैं तो नदी भी हमसे दूर बहुत दूर होती चली जाती है-

"
अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
......"

कवि का स्पष्ट मत है कि यदि हम अपनी संस्कृति , सभ्यता से निरंतर कटते रहते हैं तो इसका आशय है कि हम कहीं अलग-थलग पड़ जाते हैं। परंतु संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वह मर नहीं सकती। संस्कृति ब्रह्म की भाँति अनिवर्चनीय है और चिरजीवी है, वह तो जिंदा रहेगी ही किसी न किसी रूप में-

"
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में
......."


कठिनतम समय में भी नदी हमारे साथ रहती है , हमारे अवचेतन में अवस्थित रहकर हमें सम्बल देती है। भले ही हम ऊपर से अत्याधुनिकता का दिखावा करके अपनी संस्कृति, सभ्यता से कटने का अभिनय करें पर हमारे मन के किसी गहरे कोने में कहीं छिपकर नदी बहती रहती है-

"
सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई
....."


कवि हमारे अंदर छिपी बैठी नदी की आहट सुनने की प्रेरणा देकर हमें हमारी संस्कृति
, हमारी सभ्यता से जोड़ देना चाहता है-


"
कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!
......."


कविता की भाषा बोलचाल की सहज हिन्दी है परंतु प्रवाहात्मकता नदी की जलधारा सी बहती हुई। पूरी कविता में कवि जो कुछ कहना चाहता है वह पाठक तक बहुत अच्छी तरह से संप्रेषित हो रही है। कुल मिलाकर यह एक उत्कृष्ट कविता है।


रविवार, 5 अप्रैल 2009

अँधेरी खाइयों के बीच / कुँअर बेचैन


दुखों की स्याहियों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि जैसे सोख़्ता हो।

जनम से मृत्यु तक की
यह सड़क लंबी
भरी है धूल से ही
यहाँ हर साँस की दुलहिन
बिंधी है शूल से ही
अँधेरी खाइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि ज्यों ख़त लापता हो।

हमारा हर दिवस रोटी
जिसे भूखे क्षणों ने
खा लिया है
हमारी रात है थिगड़ी
जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है
घनी अमराइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी,
जैसे कि पतझर की लता हो।

हमारी उम्र है स्वेटर
जिसे दुख की
सलाई ने बुना है
हमारा दर्द है धागा
जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है
कई शहनाइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी
जैसे अभागिन की चिता हो।

कविता कोश के पन्नों को पलटते हुए मेरी
दृष्टि एक गीत पर पड़ी तो फिर आगे नहीं बढी, ठहर ही गई। जिन्दगी को लेकर शायद ही कोई कवि हो ,जिसने कुछ न लिखा हो,पर इतने अच्छे प्रतीक और शब्दों का सामंजस्य पूर्ण प्रयोग कहीं नही देखने मिला। देखें ॰॰

दुखों की स्याहियों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि जैसे सोख़्ता हो।

नये प्रतीक और प्रतिमानों से युक्त आधुनिक उपमाओं से सज्जित यह गीत श्रेष्ठ नवगीत की श्रेणी में आता है.। सहज शब्द विन्यास और भाषा की सरलता इसे अत्यन्त बोधगम्य बना देता है।

हमारी उम्र है स्वेटर
जिसे दुख की
सलाई ने बुना है
हमारा दर्द है धागा
जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है

प्रत्येक कवि का कविता लिखने का एक उद्देश्य होता है , लेकिन बहुत कम ही कवि उसमें सफल हो पाते है। इस गीत के माध्यम से कवि अपना संदेश हृदय तक पहुंचाने में पूर्ण सफल हुआ है।

हमारा हर दिवस रोटी
जिसे भूखे क्षणों ने
खा लिया है
हमारी रात है थिगड़ी
जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है
घनी अमराइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी,
जैसे कि पतझर की लता हो।

दिन और रात का निरंतर बीतना ही जिंदगी है परन्तु एक आम आदमी अपना पूरा दिन रोटी की जुगाड़ में बिता देता है क्योंकि उसे अपने और अपने परिवार के पेट की भूख मिटानी है, कवि ने इस त्रासदी को कितनी सपाट बयानी के साथ कह दिया है-

हमारा हर दिवस रोटी / जिसे भूखे क्षणों ने / खा लिया है
रात की थिगड़ी को अमावस ने सिया है........ अमावस दुख का प्रतीक है परन्तु कवि ने अमावस के साथ "बूढ़ी" विशेषण लगाकर यह संकेत भी दे दिया है कि इस दुख की उम्र थोड़ी ही है ........

गीत की सभी विशेषताओं को समेटे, झरने के प्रवाह की तरह कल कल करता यह गीत जीवन की सत्यता को उद्घाटित करता है। इस नवगीत के रचयिता गीत की दुनिया के बादशाह डा.कुँअर बेचैन हैं। कुँअर बेचैन के गीत पढने में जितने अच्छे लगते है् ,सुनने में चार गुना ज्यादा अच्छे लगते हैं।

जो लोग गीत लिखना चाहते हैं उन के लिये कुँअर बेचैन के गीतों को पढना अनिवार्य होना चाहिये |

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ले - शास्त्री नित्यगोपाल कटारे


कुँअर बेचैन जी की यह और बहुत सी अन्य कविताएं आप कविता कोश पर यहाँ पढ सकते हैं ।



शनिवार, 4 अप्रैल 2009

कविता कोश के पन्नों से


कहते हैं कि कविता को पढना और कविता को समझना दो अलग अलग बातें हैं ।

कविता को पढते तो हम सभी हैं लेकिन इस चिट्ठे में शास्त्री नित्य गोपाल जी कटारे हमें कविता को समझ कर उस का आनन्द लेना सिखायेंगे । हर सप्ताह सोमवार की सुबह कटारे जी ’कविता कोश’ ( www.kavitakosh.org ) के पन्नो से एक कालजयी रचना को चुन कर उसे अपनी टिप्पणी के साथ प्रस्तुत करेंगे । टिप्पणी में कुछ कविता के बारे में होगा , कुछ कवि के बारे में । कभी कविता की विधा के बारे में तो कभी कविता से जुड़ा रोचक संस्मरण ।

शुरुआत हम सिर्फ़ कटारे जी से कर रहे हैं लेकिन भविष्य में काव्य के और मर्मज्ञ भी इस से जुड़ेंगे और हमें उन्हें पढने का अवसर मिलेगा ।

तो चलिये देर किस बात की है , बुकमार्क कीजिये इस चिट्ठे को और इंतज़ार कीजिये सोमवार की सुबह का .....