मंगलवार, 26 मई 2009

तुम कभी थे सूर्य / चन्द्रसेन विराट


तुम कभी थे सूर्य
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये

यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये

वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये

देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये

देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये

प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये

कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये

सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये

चंद्रसेन विराट जी की यह गज़ल और अन्य कविताएं कविता कोश में यहां पढ़ी जा सकती हैं ।


लेख : शास्त्री नित्य गोपाल कटारे
दुष्यंत जी के बाद हिन्दी गजल की परम्परा को आगे बढाने का कार्य अनेक कवियों ने सफलता पूर्वक किया है । उनमें श्री चन्द्रसेन विराट का नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। छन्द शास्त्र के मर्मज्ञ श्री विराट ने अनेक छन्दों में कुशलता के साथ अपनी लेखनी के माध्यम से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। आपका सारा लेखन प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य के मध्य सेतु का काम करता है। आपकी कविताओं में एक ओर जहाँ प्राचीन भारतीय संस्कृति, परम्परा और जीवन मूल्यों को समुचित स्थान मिला है साथ ही आधुनिक भौतिकवाद की चकाचोंध से भ्रमित समाज को एक अच्छी दिशा भी दिखाई देती हैं।

"तुम कभी थे सूर्य" ग़ज़ल में आपने पुराने भारतीय गौरव का स्मरण कराते हुए आज तक की यात्रा का कुशल विवेचन किया है। कभी विश्वगुरु की उपाधि से विभूषित रह चुके भारत की आज स्थिति क्या है? और क्या यही हमारी उपलब्धि है? सोचने को विवश करती है यह पंक्ति:
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये

"यथा राजा तथा प्रजा" सूक्ति के अनुसार जैसा नेतृत्व होगा समाज भी वैसा ही हो जाता है। यदि नेता अच्छा नही है तो देश कभी आगे नहीं बढ सकता। नेतृत्व बदलते ही सारी व्यवस्था बदल जाती है॰॰॰
यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये

समय सबका नियन्ता है। समय ने सबको सबक सिखाया है, उससे कोई नहीं बच सकता। "समय बड़ा बलवान" का स्मरण रखने की शिक्षा देते हुए कवि कहता है॰॰॰
वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये

राजनीति की अस्थिरता का जिक्र करते हुए कवि ने "प्यार और राजनीति में सब कुछ जायज है" कहने वाले राजनीतिज्ञों को सावधान किया है॰॰॰
देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये

एयरकंडीशन बंगलों में बैठकर राष्ट्र की समस्याओं पर धाराप्रवाह भाषण करने वाले तथाकथित नेताओं को झाड़ते हुए कवि कहता है॰॰॰
देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये

शाश्वत प्रेम के आध्यात्मिक महत्व को समझाते हुए कवि उसकी दुर्दशा पर आँसू बहाता दिखता है॰॰॰

प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये

प्रगतिशील लेखन के नाम पर हो रही साहित्य की गिरावट पर कवि चोट करते हुए उन व्यावसायिक समालोचकों की खबर भी लेता है॰॰॰
कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये

आधुनिक सभ्यता की उपलब्धियों पर कटाक्ष करते हुए कवि चिन्तन करने को विवश करता है॰॰॰

सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये


सोमवार, 18 मई 2009

सुख का दुख / भवानीप्रसाद मिश्र




जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है,
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूं ।

यहां एक बात
इससॆ भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,
मैंने बड़ी कोशिश की है उन्हें
सिखा दूं कि सुख कोई डरने की चीज नहीं है ।

मगर नहीं
मैंने देखा है कि जब कभी
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में
बाजार में या किसी के घर,
तो उनकी आँखों में खुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ साथ डर भी आ गया है ।

बल्कि कहना चाहिये
खुशी झलकी है, डर छा गया है,
उनका उठना उनका बैठना
कुछ भी स्वाभाविक नहीं रह पाता,
और मुझे इतना दु:ख होता है देख कर
कि मैं उनसे कुछ कह नहीं पाता ।

मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि बेटा यह सुख है,
इससे डरो मत बल्कि बेफिक्री से बढ़ कर इसे छू लो ।
इस झूले के पेंग निराले हैं
बेशक इस पर झूलो,
मगर मेरे बच्चे आगे नहीं बढ़ते
खड़े खड़े ताकते हैं,
अगर कुछ सोचकर मैं उनको उसकी तरफ ढकेलता हूँ
तो चीख मार कर भागते हैं,

बड़े बड़े सुखों की इच्छा
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने उन्हें फोड़ दी है ।

भवानी प्रसाद मिश्र जी यह कविता और बहुत सी अन्य कविताएं कविता कोश पर यहां पढी जा सकती हैं


लेख : शास्त्री नित्य गोपाल कटारे

दुनियाँ की समस्त कविताओं को कथ्य की दृष्टि से दो भागों में बांट सकते हैं। एक है भावात्मक कविता और दूसरी है विचारात्मक कविता। जब व्यक्ति का भाव केन्द्र किसी भावातिरेक से भर जाता है तो वह भाव स्वयं अभिव्यक्त होने लगता है, तब कवि उस भाव को जो कविता का स्वरूप देता है उसे हम भावात्मक कविता कहते है। इसी तरह जब मस्तिष्क में कोई सुन्दर विचार आता है और उसे अभिव्यक्त करने के लिये जो रचना की जाती है उसे विचारात्मक कविता कहते हैं। भावात्मक कविता स्वयं प्रस्फुटित होती है और विचारात्मक कविता सप्रयास और सोद्देश्य रची जाती है।
कविता कैसी होनी चाहिये इस विषय पर साहित्य जगत में वाद॰॰विवाद चलता रहता है।
इस बारे में सबसे अच्छा परिभाषा गोस्वामी तुलसीदास जी ने कुछ इस प्रकार की है॰॰॰॰॰॰
कीरति भणिति भूति भलि सोई ।
सुरसरि सम सब कर हित होई ।।

अर्थात् कीर्ति , कविता और समृद्धि वही अच्छी होती है जो गंगा के समान सबका कल्याण कर सके।
कीर्ति ,कविता और समृद्धि यदि केवल अपने लिये ही हो तो वह दो कौड़ी की है । ऐसी कीर्ति का समाज में, कविता का साहित्य में और समृद्धि का राष्ट्र में कोई स्थान नहीं होता। " हितेन सहितम् साहित्यम् " अर्थात् जिसमें समाज का हित निहित हो उसे साहित्य कहते हैं । अच्छी कविता वही है जो समाज का हित कर सकती हो, भले ही उसमें रस ,छन्द ,अलंकारों का सर्वथा अभाव ही क्यों न हो।
कविता कोश के ऐसी कविता लिखने वाले महान साहित्यकारों में से एक हैं पं. भवानीप्रसाद मिश्र , जिनकी सभी कविताएं विचार प्रधान और समाज को दिशाबोध कराने में समर्थ रही हैं। सन्नाटा ,
सतपुड़ा के घने जंगल और गीत फरोश जैसी कविताओं के माध्यम से समाज को पर्यावरण , इतिहास ,कला और संस्कृति के प्रति संवेदनशील बनाया। उन्हीं की एक कविता है " सुख॰दुख "
सुख और दुख ऐसे द्वन्द्व हैं जो मनुष्य को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं । वह इनके बन्धन से मुक्त नहीं हो पाता। सुख॰॰दुख एक सिक्के के दो पहलू हैं जौ कहीं भी साथ साथ ही जाते हैं । यह अलग बात है कि एक समय में एक ही दिखता है दूसरा छुपा रहता है, और जब सिक्का पलटता है तो दूसरा दिखने लगता हे और पहला छुप जाता है। वास्तव में इन दोनों का ही कोई अस्तित्व नहीं है, मात्र मन का भ्रम है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं॰॰॰
सुख॰॰दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
तस्मात् युद्धस्व कौन्तेय नैवं पापमवाप्स्यसि।।

अर्थात् हे अर्जुन सुख॰॰दुख़, लाभ॰॰हानि, और जय॰॰पराजय को समान मानकर युद्ध कर फिर पाप नही लगेगा। इस गूढ दर्शन को मिश्र जी ने अपने सहज सरल अन्दाज में किस तरह व्यक्त किया है॰॰॰
जिन्दगी में कोई बड़ा सुख नहीं है,
इस बात का मुझे बड़ा दु:ख नहीं है,

जिस प्रकार दुःख को झेलने के लिए क्षमता चाहिये, वैसे ही सुख को झेलने के लिए भी वैसी ही क्षमता की आवश्यकता होती है। अन्यथा कई ऐसे उदाहरण हैं कि अचानक कोई बड़ी खुशी मिल जाने से उसे झेल नहीं पाये और पंचत्व को प्राप्त हो गए। अतः बड़ा सुख बड़े दुख का कारण भी बन सकता है। इसीलिये कवि सतर्क कर देता है"""
क्योंकि मैं छोटा आदमी हूँ,
बड़े सुख आ जाएं घर में
तो कोई ऎसा कमरा नहीं है जिसमें उसे टिका दूं ।

सुख जितना बड़ा होता है समय का सिक्का पलटने पर वही उतने ही बड़े दुःख में बदल जाता है। सुख आने के साथ ही उसके खो जाने का डर भी साथ ही आ जाता है ,जो बड़ा दर्दनाक होता है। कवि के शब्दों में देखिये॰॰॰॰

यहां एक बात
इससॆ भी बड़ी दर्दनाक बात यह है कि,
बड़े सुखों को देखकर
मेरे बच्चे सहम जाते हैं,

कवि एक शाश्वत सत्य का उद्घाटन करना चाहता है कि सुख और दुःख दोनों का ही स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है अपितु वे मन के खिलोने मात्र हैं। सुख और दुख की परिभाषा दर्शन शास्त्र में इस तरह की गई है॰॰॰
" मनोऽनुकूलं कार्यं सुखं मनस्प्रतिकूलं दुःखम् "
अर्थात् जो कुछ मन के अनुसार हो तो सुख होता है ,और जो मन के प्रतिकूल हो तो दुख होता है। जैसे मन प्रति पल बदलता है वैसे ही सुख॰॰दुख बी बदलते रहते हैं। जो व्यक्ति दुख नहीं चाहता उसे सुख की भी तलाश नहीं करना चाहिये। क्यों कि वे पक्के साथी हैं साथ साथ ही आते हैं।

मैंने देखा है कि जब कभी
कोई बड़ा सुख उन्हें मिल गया है रास्ते में
बाजार में या किसी के घर,
तो उनकी आँखों में खुशी की झलक तो आई है,
किंतु साथ साथ डर भी आ गया है ।

अन्त में कवि इस विषय में गीता का समाधान॰॰॰
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीत राग भय क्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।

अर्थात् जो व्यक्ति दुख आने पर उद्विग्न नहीं होता और सुख आने पर नाचता भी नहीं है ,जिसके राग भय और क्रोध नष्ट हौ जाते हैं वह स्थिर बुद्धि कहलाता हे ।इस परम उपदेश को शिरोधार्य करते हुए कवि निर्णय लेता है॰॰॰

बड़े बड़े सुखों की इच्छा
इसीलिये मैंने जाने कब से छोड़ दी है,
कभी एक गगरी उन्हें जमा करने के लिये लाया था
अब मैंने उन्हें फोड़ दी है ।
इस तरह पं, भवानी प्रसाद मिश्र ने समाज के कल्याण के लिये अच्छे विचारों को अपनी कविता का माध्यम बनाया है। उनकी हर एक कविता कोई न कोई विशिष्ट सन्देश देती है


मंगलवार, 12 मई 2009

एक आँख वाला इतिहास / दूधनाथ सिंह


मैंने कठैती हड्डियों वाला एक हाथ देखा--
रंग में काला और धुन में कठोर ।
मैंने उस हाथ की आत्मा देखी--
साँवली और कोमल
और कथा-कहानियों से भरपूर !
मैंने पत्थरों में खिंचा
सन्नाटा देखा ।
जिसे संस्कृति कहते हैं ।
मैंने एक आँख वाला
इतिहास देखा
जिसे फ़िलहाल सत्य कहते हैं ।

दूधनाथ सिंह जी की यह और अन्य कविताएं आप कविता कोश में यहां पढ सकते हैं ।


लेख : अमिताभ त्रिपाठी

दूधनाथ सिंह जी की एक छोटी किन्तु अत्यन्त चुटीली और प्रभावपूर्ण कविता है "एक आँख वाला इतिहास" । इतिहास की विडम्बना है कि इसे सदैव सत्तासीन शक्तियों द्वारा लिखवाया जाता है। जिसमें वह बहुत कुछ नहीं होता जिस पर वह युग, वह समाज यहाँ तक कि वह सत्ता भी निर्भर करती है। सत्तासीनों की मति और अभिमत से लिखवाये गये ये इतिहास कुछ परिवारों की शौर्यगाथाओं, पारस्परिक वैमनस्यों, उनके बैभव एवं विलासिताओं, उनकी निर्मितियों, आस्थाओं, पूर्वाग्रहों आदि के लेखे-जोखे मात्र हैं। इसमें वह बहुसंख्यक जन कहीं नहीं है किसके श्रम के दोहन से उन्होने सत्ता का सुख भोगा है। यह परम्परा प्रचीन काल से आज तक चली आ रही है। इस बीच शासन तंन्त्र बदले, शासक बदले, शासितों में भी कुछ परिवर्तन हुये परन्तु सत्तासीनो द्वारा इतिहास को मनोनुरूप लिखवाने के प्रयत्न अब भी जारी हैं। जिसमें आम आदमी और सत्य के अतिरिक्त सब कुछ होता है।
आरम्भ में एक हाथ दिखता है
मैंने कठैती हड्डियों वाला एक हाथ देखा--
रंग में काला और धुन में कठोर ।
मैंने उस हाथ की आत्मा देखी--
साँवली और कोमल
और कथा-कहानियों से भरपूर !
कठैती हड्डियों वाला, काला और धुन में कठोर
कठैती, मजबूती का भी प्रतीक है और सदियों की संवेदना शून्यता का भी यही बात आगे धुन में कठोर से और भी स्पष्ट हो जाती है। धुन में कठोर उस दृढता को भी दर्शित करता है जो उसकी जिजीविषा की वाहक है। काला रंग, वर्ण का उतना प्रतीक नहीं जितना अंधकार में धकेले जाने का। फिर भी उसकी आत्मा साँवली और कोमल है। आत्मा की सरलता और मृदुता का कारण है उसका पारम्परिक कथा और कहानियों से भरा हुआ मन जो सभी कठिनाइयों को सह लेने का सम्बल प्रदान करता है। फलतः उसने नियति से समझौता कर लिया है।
मैंने पत्थरों में खिंचा
सन्नाटा देखा ।
जिसे संस्कृति कहते हैं ।

यह सन्नाटा यथास्थितिवाद का सन्नाटा है। पत्थर उस निस्पन्दता और जड़ता का प्रतीक है जो संस्कृति के नाम पर निरन्तर चली आ रही है। हम मोह्ग्रस्त हैं उसके अनुरक्षण के लिये।
और अन्त में कविता वहाँ पहुँचती है जहाँ के लिये शुरू हुई थी।
मैंने एक आँख वाला
इतिहास देखा
जिसे फ़िलहाल सत्य कहते हैं ।

एकांगी इतिहास हर समय का सत्य रहा है और इसके तले वही रौंदा गया है जिसके पास कलम नहीं थी या उसे ख़रीदने की ताकत नहीं थी। नीरज जी ने भी इतिहास के इस विद्रूप को रेखांकित करते हुये कहा है
उन्ही लोगों ने इतिहास बनाये हैं यहाँ
जिनपे इतिहास को लिखने के लिये वक़्त न था।
इतिहास के ये वास्तविक निर्माता नीव के पत्थरों की भाँति कभी चर्चा में नहीं आते। एक आँख वाला इतिहास इनकी तरफ की आँख मूंदे रहता है। किसी ने सच ही कहा है ’इतिहास एक प्रवंचना है’ (History is a fraud). ’जिसे फ़िलहाल सत्य कहते हैं’ में एक निहितार्थ भी छिपा है कि यह फ़िलहाल सत्य है। भविष्य में इसके असत्य हो जाने की सम्भावना है। कविता इस अदृश्य से आशावाद पर समाप्त होती है।

रवीन्द्र कालिया जी ने लिखा है कि दूधनाथ जी कम लिखते हैं लेकिन जब लिखते तब तबीयत से लिखते हैं। उनके गद्य और पद्य दोनो में यह बात देखी जा सकती है। यह छोटी सी सारगर्भित कविता भी उन्होने तबीयत से लिखी है।

रविवार, 3 मई 2009

बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ / अकबर इलाहाबादी


दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त, नक़्श ब-दीवार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा हूँ इब्रत से, दवा की नहीं हाजत
गम़ का मुझे ये जो़’फ़ है, बीमार नहीं हूँ

वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ

यारब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जो़’फ़ की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ


तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला
ज़ीस्त= जीवन; लज़्ज़त= स्वाद
ख़ाना-ए-हस्ती= अस्तित्व का घर; बेलौस= लांछन के बिना
फ़क़्त= केवल; नक़्श= चिन्ह, चित्र
अफ़सुर्दा= निराश; इब्रत=मानसिक खेद ; हाजत= आवश्यकता
जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी,क्षीणता
गुल=फूल; ख़िज़ां= पतझड़; ख़ार= कांटा
महफ़ूज़= सुरक्षित; इनायत= कृपा; तलबगार= इच्छुक
अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़=निराशा और क्षीणता;क़ाफ़िर=नास्तिक; दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला
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अकबर इलाहाबादी जी की यह गज़ल और अन्य रचनाएं कविता कोश में यहां पढी जा सकती हैं ।

लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
केवल रस,छन्द और अलंकारों द्वारा सुसज्जित शब्द समूह की रचना कर लेना ही कवि होने के लिये पर्याप्त नहीं है। कवि को वेद और उपनिषदों में ॠषि, मुनि, दृष्टा के समतुल्य माना गया है। कवि वह होता है जो परम सत्य को उद्घाटित करने में समर्थ हो, जो समाज के कल्याण के लिये साधन उपलब्ध करा सकता हो, जो वर्तमान को देखकर भूतकाल और भविष्यकाल का अनुमान कर सके, जो इन्द्रियातीत पदार्थों का समुचित अनुभव कर सकता हो।श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है॰॰॰
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनाम् उशना कविः

अर्थात् मैं मुनियों में व्यास और कवियों में श्रेष्ठ कवि उशना अर्थात् शुक्राचार्य हूँ । जबकि शुक्राचार्य जी ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, अपितु उनने मृत्यु से जीतने के लिये मृतसंजीवनी नामक महामन्त्र की रचना की थी। समाज को सबसे बड़े भय से मुक्त करने की कविता लिखी थी। फिर एक स्थान पर कविं पुराणम् अनुशासितारम् कहकर कवि को सर्वज्ञ माना गया है। एक और स्थान पर कर्म और अकर्म की गहनता बताते हुए भगवान् वासुदेव कहते हैं॰॰॰ किं कर्मं किमकर्मञ्च कवयोऽपि विमोहिताः अर्थात् कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसको समझना इतना कठिन है कि यहाँ कविजन तक भ्रमित हो जाते हैं कहने का तात्पर्य है कि सामान्यतः सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य को समझ लेना कवि का कार्य है। अतः जिन लोगों ने दुनियाँ के तमाम रहस्यों को उद्घाटित करके जन सामान्य को जीवन जीने की कला सिखाई है वास्तव में वे ही कवि कहलाने के हकदार हैं।

कविता कोश के पन्नों को पलटने से जो कवि इस कसौटी पर खरे उतरते हैं उनमें आधुनिक काल के शायर अकबर इलाहाबादी का नाम नहीं भूला जा सकता। उनका एक-एक शेर जीवन के सूक्ष्म रहस्यों का उद्घाटित करता है। जीवन का शाश्वत सत्य किसी धर्म, सम्प्रदाय के अनुसार अलग-अलग नहीं होता अपितु सम्पूर्ण मानव का सत्य एक ही है। अकबर इलाहाबादी के शेर वही बात कहते हैं जो गीता के श्लोक बार-बार कहते आ रहे हैं। कहीं कहीं तो लगता है जैसे गीता के श्लोक का उर्दू में अनुवाद किया गया हो। देखें गीता का यह श्लोक ॰॰॰॰
त्यक्त्वा कर्म फलासंगं नित्यतृप्तः निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित् करोति सः।।
अर्थात कर्म के फल की आसक्ति का सर्वथा त्याग करके नित्य तृप्त और निराश्रित रहते हुए कर्म करने वाला व्यक्ति सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता, अर्थात् कर्म बन्धन से मुक्त रहता है। अब देखिये अकबर इलाहाबादी अपने शब्दों में यही बात कैसे कहते हैं॰॰॰
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ ।।

यही है जीवन जीने की कला। जब कुछ न खरीदना हो और न बेचना हो तब बाजार में निकल कर देखें तो आनन्द ही आनन्द दिखाई देगा। वहाँ जो खरीदने बेचने आये हैं उनके चेहरों पर तनाव दिखेगा, क्योंकि वे लाभ॰॰॰ हानि के बन्धन में फंसे हुए होते हैं। आप उन्हें देखकर बिना हंसे नहीं रह सकते।

दुनियाँ के अधिकांश लोग भौतिक विषयों के उपभोग को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं पर बाद में पता चलता है कि भोगाः न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः अर्थात् हम भोगों को नहीं भोग सके और भोगों ने हमको ही भोग लिया है। तब कवि उसका समाधान बताता है॰॰॰
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते।।

अर्थात् जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। इसी बात को शायर इस तरह कहता है॰॰॰
ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ ।।

मनुष्य की इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। जितना उन्हें पूरा करने की कोशिश की जाती है उतनी ही बढती जाती हैं। तब गीता का गायक घोषणा करता है॰॰॰
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।

अर्थात् जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता अहंकार और स्पृहा रहित हुआ जीवन जीता है वह परम शान्ति को प्राप्त होता है। लगता है शायर को अच्छी तरह पता है कि बिना किसी लांछन के जीवन जी कर चले जाना कितना कितना महत्वपूर्ण है तभी वह कह पाता है॰॰॰

इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त, नक़्श ब-दीवार नहीं हूँ ।।

इसी तरह अकबर इलाहाबादी जी ने भारतीय दर्शन के तथ्यों को अपनी सहज भाषा में व्यकत किया है, जिसका प्रभाव जनमानस पर निश्चित रूप से हुआ।