मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

नदी / केदारनाथ सिंह


लेख - डा० जगदीश व्योम
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हमें खुशी है कि डा. जगदीश व्योम जी ने हमारे लिये नियमित रूप से लिखना स्वीकार कर लिया है । अब आप हर गुरुवार की सुबह उन्हें इस ब्लौग पर पढ़ सकेंगे ।
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नदी /केदारनाथ सिंह
रचनाकाल : १९८३

अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में


सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई

कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!


केदारनाथ सिंह जी की यह कविता और बहुत सी अन्य कविताएं आप कविता कोश पर यहाँ पढ सकते हैं ।

कविता कोश के पन्नो को पढ़ते पढ़ते नई कविता के बड़ी कद काठी के कवि केदारनाथ सिंह की कविता नदी ने मुझे आकर्षित किया। आकर्षित क्या एक तरह से बाँध लिया। कविता मन को छू गई। लगा कि बड़ा कवि यूँ ही बड़ा नहीं होता न जाने कितनी गहराई में उतरकर सृजन की नींव रखता है। वह कुछ अलग तरह से सोचता। संस्कृत , सभ्यता, लोकतत्व, भाषाई सिद्धपन उसमें रच-बस जाते हैं। वह सकारात्मक सोचता है, सामान्य बोलचाल के लहजे में लिखता है, अपना पांडित्व प्रदर्शन नहीं करता बल्कि सामान्य जन की दृष्टि से भी देखता है। निराशा में आशा की किरण उसे दिखाई देती है, पतझर में भी वसंत के आगमन की पदचाप सुनाई दे जाती है। वह मानवता को, व्यवस्था को देखता नहीं फिरता बल्कि मानवमूल्यों का संचार जन-जन में करने का प्रयास करता है। यह सब विशेषताएँ उसे सबसे अलग श्रेणी में खड़ा करती हैं।

कवि केदारनाथ सिंह की "नदी" कविता उनके प्रसिद्ध संग्रह "अकाल में सारस" से ली गई है। "नदी" वास्तव में केवल बहते हुए जल की धारा मात्र नहीं है, वह हमारा जीवन है, हमारा प्राणतत्त्व है, हमारी संस्कृत का जीवंत रूप है, हमारी सभ्यता की जननी है। नदी हमारी रग-रग में दौड़ रही है। इस कविता में "नदी" का फलक बहुत व्यापक है। यदि हम धीरे से पूरे मनोयोग के साथ नदी के विषय में सोचें तो हम अपनी संस्कृति के विषय में विचार करें, उससे रागात्मक रूप से जुड़ने के लिए संवाद करें तो हम पूरी तरह से स्वयं को नदी से (अपनी संस्कृति और सभ्यता से) जुड़ा हुआ पाते हैं। परंतु यदि अति आधुनिकता के भ्रामक प्रवाह में बहकर अपनी संस्कृति, सभ्यता को तिलांजलि देते हुए उसे हेय दृष्टि से देखते हैं तो नदी भी हमसे दूर बहुत दूर होती चली जाती है-

"
अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
......"

कवि का स्पष्ट मत है कि यदि हम अपनी संस्कृति , सभ्यता से निरंतर कटते रहते हैं तो इसका आशय है कि हम कहीं अलग-थलग पड़ जाते हैं। परंतु संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वह मर नहीं सकती। संस्कृति ब्रह्म की भाँति अनिवर्चनीय है और चिरजीवी है, वह तो जिंदा रहेगी ही किसी न किसी रूप में-

"
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में
......."


कठिनतम समय में भी नदी हमारे साथ रहती है , हमारे अवचेतन में अवस्थित रहकर हमें सम्बल देती है। भले ही हम ऊपर से अत्याधुनिकता का दिखावा करके अपनी संस्कृति, सभ्यता से कटने का अभिनय करें पर हमारे मन के किसी गहरे कोने में कहीं छिपकर नदी बहती रहती है-

"
सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई
....."


कवि हमारे अंदर छिपी बैठी नदी की आहट सुनने की प्रेरणा देकर हमें हमारी संस्कृति
, हमारी सभ्यता से जोड़ देना चाहता है-


"
कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!
......."


कविता की भाषा बोलचाल की सहज हिन्दी है परंतु प्रवाहात्मकता नदी की जलधारा सी बहती हुई। पूरी कविता में कवि जो कुछ कहना चाहता है वह पाठक तक बहुत अच्छी तरह से संप्रेषित हो रही है। कुल मिलाकर यह एक उत्कृष्ट कविता है।


2 टिप्‍पणियां:

  1. जिन्हें कोश में गया सहेजा, वे कवितायें तो अद्भुत हैं
    लेकिन जो विस्तार यहाँ पर पाया है वह अवर्णनीय है
    यहाँ व्योमजी ने कविता को जिस गहराई से समझाया
    वह कविता के लिये, कहूँगा निस्सन्देह ही अतुलनीय है

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