कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ाअरा तो है नज़र के लिए
वो मुतमुइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
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दुष्यन्त कुमार जी की यह कविता और अन्य कविताएं आप कविता कोश में यहां पढ़ सकते हैं ।
लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
दुनियाँ के जाने माने महान विचारक , ओशो , ने कवि और कविता के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ॰॰
"कवि विश्व का सबसे असंतुष्ट प्राणी होता है। वह कुछ कहना चाहता है, पर कह नहीं पाता, इसलिये बार बार कहता है, फिर भी उसे संतोष नहीं मिलता। उनका मानना था कि कोई भी कवि जीवन भर एक ही बात को अलग अलग अन्दाज में अलग अलग ढंग से और अलग अलग शब्दों के द्वारा कहता है। किसी भी साहित्यकार के सम्पूर्ण साहित्य को ध्यान पूर्वक देखा जाये पता चलेगा कि वह किसी एक सत्य को उद्घाटित करना चाहता है। जिस सत्य का उसने अनुभव किया है उसे अन्य लोगों तक पहुँचाना चाहता है।"
गोस्वामी तुलसी दास का पूरा साहित्य आदर्श मानव की परिकल्पना के द्वारा समाज में राम राज्य की स्थापना करना चाहता है। कबीर का पूरा साहित्य धर्म के बाह्य आडम्बरों को हटा कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना का संदेश है। मीरा का साहित्य सात्विक प्रेम की महत्ता को स्थापित करता है, तो सूरदास का साहित्य वात्सल्य प्रेम से परिचित कराता है। महाकवि निराला का साहित्य शोषण के विरुद् जन चेतना जाग्रत करता दिखाई देता है।
इस सिद्धान्त को दृष्टिगत रखते हुए कविता कोश के कवियो पर नजर डाली तो लगा कि बात बिल्कुल सौ प्रतिशत सही है।
हर कवि का एक निश्चित संदेश होता है, अलग कहने का ढंग होता है,एक खास तेवर के साथ साथ भाषा भी उसकी अपनी अलग ही होती है। आइये आज हिन्दी साहित्य में गजल को प्रतिष्ठापित करने वाले कवि दुष्यन्त कुमार के काव्य पर नजर डालें।
दुषंयन्त कुमार के संपूर्ण साहित्य में स्वातन्त्र्योत्तर भारत में व्याप्त अव्यवस्था के विरुद्ध शंख नाद सुनाई देता है। आजादी के बाद राष्ट्र की जनता ने राम राज्य का सपना देखा था ,पर अवसरवादी रजनीतिज्ञों ने उसे जल्दी ही तोड़ दिया। तब दुष्यन्त जी को कहना पड़ा॰॰॰
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
यह लिखने में उन्हें कोई आनन्द नहीं आया था और न ही किसी प्रकार का सन्तोष मिला था ,किन्तु अव्यवस्था के विरुद्ध अपने हृदय में आग की ज्वाला लिये वे स्वयं कहते हैं॰॰॰
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।
जब किसी ने उनसे अज्ञानता से ग्रसित निरक्षर और प्रसुप्त चेतना वाले बहुसंख्यक नागरिकों की ओर ध्यान दिलाते हुए पूछा कि क्या आपकी आबाज इनको जगा भी पायेगी ? तब वे आशावादी दृष्टिकोण से उत्तर देते हैं...
राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
वे बार बार कहते हैं कि आग लगाने के लिये एक चिनगारी काफी होती है॰॰॰॰
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देखएक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।
सूरज ,प्रकाश, दीपक,चिनगारी आदि शब्द जाग्रति के सूचक हैं। कवि कहीं से और किसी के भी माध्यम से चेतना जाग्रत करना चाहता है॰॰॰॰मेरी तो आदत हैरोशनी जहाँ भी होउसे खोज लाऊँगा अपने द्वारा किए गये प्रयास से जब यथेच्छ सफलता नहीं मिलती तो कवि निराश नहीं होता और कहता है कि अंतिम क्षण तक प्रयास छोड़ें नहीं क्यों कि आने वाली पीढी उसे आगे बढायेगी॰॰
थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे ।
अपेक्षित विकास न हो पाने से दुखी कवि फिर एक नये अन्दाज मे् वही बात कहता है॰॰॰॰
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँइसी को और स्पष्ट करते हुए दूसरे शब्दों में फिर कहते हैं॰॰॰
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
व्यवस्था बदलने के प्रयास में खड़े होने वाले हंगामों से अपने को दूर करते हुए कवि किसी भी तरह से परिवर्तन चाहता हे। इसमें जो भी सहयोगी हो उसका स्वागत है॰॰॰
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
व्यवस्था पर चोट करता हुआ फिर एक नया अन्दाज ए बयाँ देखिये॰॰॰॰॰इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो
जब किसी ने उन्हें सतही तथाकथित विकास दिखाने की कोशिश की तो फिर उन्होंने नये शब्दों में वही बात कही॰॰॰
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं
मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं
मूल भूत प्राकृतिक सुविधाएँ छीन लेने वाले लोग जब आपको झुनझुना पकड़ाकर दाता बनने की कोशिश करते हैँ तब कवि कह उठता है॰॰
कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप
दुष्यन्त कुमार का पूरा साहित्य दुर्व्यवस्था के खिलाफ हल्ला बोल अभियान की तरह प्रारम्भ हुआ बाद में उसे हवा मिली और अब अँगीठी जल पड़ी है धुआँ छटता दिखाई देता है॰॰॰
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही
इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो----
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुआं
हिन्दी साहित्य में गजल को प्रतिष्ठापित करने वाले कवि दुष्यन्त कुमार जी के बारे में इतने सुदर आलेख लिखने के लिए साधुवाद।
जवाब देंहटाएंकटारे जी ने दुष्यंत कुमार के लेखन मे उनकी पीढाओं को विविध संदर्भो मे
जवाब देंहटाएंसमझाया है।आजादी का अर्थ लिये हुये उनकी रचनाएं आम जनता की भावना
व्यक्त करती है ,जब कविताएँ ,कथन या लेख महसूस किये जा सकने बाले प्रभावशील
शब्द..चित्र बनाते हैं तब उनकी ताकत कही अधिक हो जाती है अर्थात् कल्पनाओ की स्थापना
हेतु बार बार प्रयास करना हमारी नियति है ।
धन्यबाद ।
कमलेश कुमार दीवान
शास्त्री नित्यगोपाल कटारे जी ने कवि दुष्यँत जी की कविता का मूल स्वर सही तर्ज़ मेँ पकडा है और यह समीक्शा प्रस्तुत करते हुए, नव चेतना व जागृति का आह्वान किया है -
जवाब देंहटाएंइसी तरह, आगे भी पढने की इच्छा है -
सुँदर प्रयास !
सादर, स -स्नेह,
-लावण्या
कटारे जी,
जवाब देंहटाएंदुष्यन्त कुमार के काव्य की बड़ी सुन्दर समालोचना है।
---लक्ष्मीनारायण गुप्त
कटारे जी,
जवाब देंहटाएंविख्यात ग़ज़लकार दुष्यन्त कुमार जी की ग़ज़लों की बड़ी सार्थक एवं सारगर्भित विवेचना की है आपने....शुभकामनाओं सहित...
~~डा.रमा द्विवेदी
बहुत सुन्दर समलोचना की है महोदय जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर समलोचना की है महोदय जी
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