शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

हरिजन गाथा / नागार्जुन





हरिजन गाथा / नागार्जुन
(एक)

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था !
महसूस करने लगीं वे
एक अनोखी बेचैनी
एक अपूर्व आकुलता
उनकी गर्भकुक्षियों के अन्दर
बार-बार उठने लगी टीसें
लगाने लगे दौड़ उनके भ्रूण
अंदर ही अंदर
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था कि
हरिजन-माताएं अपने भ्रूणों के जनकों को
खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था कि
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं--
तेरह के तेरह अभागे--
अकिंचन मनुपुत्र
ज़िन्दा झोंक दिये गये हों
प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में
साधन सम्पन्न ऊंची जातियों वाले
सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...

ऎसा तो कभी नहीं हुआ था कि
महज दस मील दूर पड़ता हो थाना
और दारोगा जी तक बार-बार
ख़बरें पहुंचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की

और, निरन्तर कई दिनों तक
चलती रही हों तैयारियां सरेआम
(किरासिन के कनस्तर, मोटे-मोटे लक्क्ड़,
उपलों के ढेर, सूखी घास-फूस के पूले
जुटाये गए हों उल्लासपूर्वक)
और एक विराट चिताकुंड के लिए
खोदा गया हो गड्ढा हंस-हंस कर
और ऊंची जातियों वाली वो समूची आबादी
आ गई हो होली वाले 'सुपर मौज' मूड में
और, इस तरह ज़िन्दा झोंक दिए गए हों

तेरह के तेरह अभागे मनुपुत्र
सौ-सौ भाग्यवान मनुपुत्रों द्वारा
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...
ऎसा तो कभी नहीं हुआ था...


(दो)


चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग
ऎसा नवजातक
न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !
पैदा हुआ है दस रोज़ पहले अपनी बिरादरी में
क्या करेगा भला आगे चलकर ?
रामजी के आसरे जी गया अगर
कौन सी माटी गोड़ेगा ?
कौन सा ढेला फोड़ेगा ?
मग्गह का यह बदनाम इलाका
जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से
पैदा हुआ बेचारा--
भूमिहीन बंधुआ मज़दूरों के घर में
जीवन गुजारेगा हैवान की तरह
भटकेगा जहां-तहां बनमानुस-जैसा
अधपेटा रहेगा अधनंगा डोलेगा
तोतला होगा कि साफ़-साफ़ बोलेगा
जाने क्या करेगा
बहादुर होगा कि बेमौत मरेगा...
फ़िक्र की तलैया में खाने लगे गोते
वयस्क बुजुर्ग दोनों, एक ही बिरादरी के हरिजन
सोचने लगे बार-बार...
कैसे तो अनोखे हैं अभागे के हाथ-पैर
राम जी ही करेंगे इसकी खैर
हम कैसे जानेंगे, हम ठहरे हैवान
देखो तो कैसा मुलुर-मुलुर देख रहा शैतान !
सोचते रहे दोनों बार-बार...

हाल ही में घटित हुआ था वो विराट दुष्कांड...
झोंक दिए गए थे तेरह निरपराध हरिजन
सुसज्जित चिता में...

यह पैशाचिक नरमेध
पैदा कर गया है दहशत जन-जन के मन में
इन बूढ़ों की तो नींद ही उड़ गई है तब से !
बाकी नहीं बचे हैं पलकों के निशान
दिखते हैं दृगों के कोर ही कोर
देती है जब-तब पहरा पपोटों पर
सील-मुहर सूखी कीचड़ की

उनमें से एक बोला दूसरे से
बच्चे की हथेलियों के निशान
दिखलायेंगे गुरुजी से
वो ज़रूर कुछ न कु़छ बतलायेंगे
इसकी किस्मत के बारे में

देखो तो ससुरे के कान हैं कैसे लम्बे
आंखें हैं छोटी पर कितनी तेज़ हैं
कैसी तेज़ रोशनी फूट रही है इन से !
सिर हिलाकर और स्वर खींच कर
बुद्धू ने कहा--
हां जी खदेरन, गुरु जी ही देखेंगे इसको
बताएंगे वही इस कलुए की किस्मत के बारे में
चलो, चलें, बुला लावें गुरु महाराज को...

पास खड़ी थी दस साला छोकरी
दद्दू के हाथों से ले लिया शिशु को
संभल कर चली गई झोंपड़ी के अन्दर

अगले नहीं, उससे अगले रोज़
पधारे गुरु महाराज
रैदासी कुटिया के अधेड़ संत गरीबदास
बकरी वाली गंगा-जमनी दाढ़ी थी
लटक रहा था गले से
अंगूठानुमा ज़रा-सा टुकड़ा तुलसी काठ का
कद था नाटा, सूरत थी सांवली
कपार पर, बाईं तरफ घोड़े के खुर का
निशान था
चेहरा था गोल-मटोल, आंखें थीं घुच्ची
बदन कठमस्त था...
ऎसे आप अधेड़ संत गरीबदास पधारे
चमर टोली में...

'अरे भगाओ इस बालक को
होगा यह भारी उत्पाती
जुलुम मिटाएंगे धरती से
इसके साथी और संघाती

'यह उन सबका लीडर होगा
नाम छ्पेगा अख़बारों में
बड़े-बड़े मिलने आएंगे
लद-लद कर मोटर-कारों में

'खान खोदने वाले सौ-सौ
मज़दूरों के बीच पलेगा
युग की आंचों में फ़ौलादी
सांचे-सा यह वहीं ढलेगा

'इसे भेज दो झरिया-फरिया
मां भी शिशु के साथ रहेगी
बतला देना, अपना असली
नाम-पता कुछ नहीं कहेगी

'आज भगाओ, अभी भगाओ
तुम लोगों को मोह न घेरे
होशियार, इस शिशु के पीछे
लगा रहे हैं गीदड़ फेरे

'बड़े-बड़े इन भूमिधरों को
यदि इसका कुछ पता चल गया
दीन-हीन छोटे लोगों को
समझो फिर दुर्भाग्य छ्ल गया

'जनबल-धनबल सभी जुटेगा
हथियारों की कमी न होगी
लेकिन अपने लेखे इसको
हर्ष न होगा, गमी न होगी

'सब के दुख में दुखी रहेगा
सबके सुख में सुख मानेगा
समझ-बूझ कर ही समता का
असली मुद्दा पहचानेगा

'अरे देखना इसके डर से
थर-थर कांपेंगे हत्यारे
चोर-उचक्के-गुंडे-डाकू
सभी फिरेंगे मारे-मारे

'इसकी अपनी पार्टी होगी
इसका अपना ही दल होगा
अजी देखना, इसके लेखे
जंगल में ही मंगल होगा

'श्याम सलोना यह अछूत शिशु
हम सब का उद्धार करेगा
आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का
बेड़ा सचमुच पार करेगा

'हिंसा और अहिंसा दोनों
बहनें इसको प्यार करेंगी
इसके आगे आपस में वे
कभी नहीं तकरार करेंगी...'

इतना कहकर उस बाबा ने
दस-दस के छह नोट निकाले
बस, फिर उसके होंठों पर थे
अपनी उंगलियों के ताले

फिर तो उस बाबा की आंखें
बार-बार गीली हो आईं
साफ़ सिलेटी हृदय-गगन में
जाने कैसी सुधियां छाईं

नव शिशु का सिर सूंघ रहा था
विह्वल होकर बार-बार वो
सांस खींचता था रह-रह कर
गुमसुम-सा था लगातार वो

पांच महीने होने आए
हत्याकांड मचा था कैसा !
प्रबल वर्ग ने निम्न वर्ग पर
पहले नहीं किया था ऐसा !

देख रहा था नवजातक के
दाएं कर की नरम हथेली
सोच रहा था-- इस गरीब ने
सूक्ष्म रूप में विपदा झेली

आड़ी-तिरछी रेखाओं में
हथियारों के ही निशान हैं
खुखरी है, बम है, असि भी है
गंडासा-भाला प्रधान हैं

दिल ने कहा-- दलित माओं के
सब बच्चे अब बागी होंगे
अग्निपुत्र होंगे वे अन्तिम
विप्लव में सहभागी होंगे

दिल ने कहा--अरे यह बच्चा
सचमुच अवतारी वराह है
इसकी भावी लीलाओं की
सारी धरती चरागाह है

दिल ने कहा-- अरे हम तो बस
पिटते आए, रोते आए !
बकरी के खुर जितना पानी
उसमें सौ-सौ गोते खाए !

दिल ने कहा-- अरे यह बालक
निम्न वर्ग का नायक होगा
नई ऋचाओं का निर्माता
नए वेद का गायक होगा

होंगे इसके सौ सहयोद्धा
लाख-लाख जन अनुचर होंगे
होगा कर्म-वचन का पक्का
फ़ोटो इसके घर-घर होंगे

दिल ने कहा-- अरे इस शिशु को
दुनिया भर में कीर्ति मिलेगी
इस कलुए की तदबीरों से
शोषण की बुनियाद हिलेगी

दिल ने कहा-- अभी जो भी शिशु
इस बस्ती में पैदा होंगे
सब के सब सूरमा बनेंगे
सब के सब ही शैदा होंगे

दस दिन वाले श्याम सलोने
शिशु मुख की यह छ्टा निराली
दिल ने कहा--भला क्या देखें
नज़रें गीली पलकों वाली
थाम लिए विह्वल बाबा ने
अभिनव लघु मानव के मृदु पग
पाकर इनके परस जादुई

भूमि अकंटक होगी लगभग
बिजली की फुर्ती से बाबा
उठा वहां से, बाहर आया
वह था मानो पीछे-पीछे
आगे थी भास्वर शिशु-छाया

लौटा नहीं कुटी में बाबा
नदी किनारे निकल गया था
लेकिन इन दोनों को तो अब
लगता सब कुछ नया-नया था

(तीन)


'सुनते हो' बोला खदेरन
बुद्धू भाई देर नहीं करनी है इसमें
चलो, कहीं बच्चे को रख आवें...
बतला गए हैं अभी-अभी
गुरु महाराज,
बच्चे को मां-सहित हटा देना है कहीं
फौरन बुद्धू भाई !'...
बुद्धू ने अपना माथा हिलाया
खदेरन की बात पर
एक नहीं, तीन बार !
बोला मगर एक शब्द नहीं
व्याप रही थी गम्भीरता चेहरे पर
था भी तो वही उम्र में बड़ा
(सत्तर से कम का तो भला क्या रहा होगा !)
'तो चलो !
उठो फौरन उठो !
शाम की गाड़ी से निकल चलेंगे
मालूम नहीं होगा किसी को...
लौटने में तीन-चार रोज़ तो लग ही जाएंगे...
'बुद्धू भाई तुम तो अपने घर जाओ
खाओ,पियो, आराम कर लो
रात में गाड़ी के अन्दर जागना ही तो पड़ेगा...
रास्ते के लिए थोड़ा चना-चबेना जुटा लेना
मैं इत्ते में करता हूं तैयार
समझा-बुझा कर
सुखिया और उसकी सास को...'

बुद्धू ने पूछा, धरती टेक कर
उठते-उठते--
'झरिया,गिरिडिह, बोकारो
कहां रखोगे छोकरे को ?
वहीं न ? जहां अपनी बिरादरी के
कुली-मज़ूर होंगे सौ-पचास ?
चार-छै महीने बाद ही
कोई काम पकड़ लेगी सुखिया भी...'
और, फिर अपने आप से
धीमी आवाज़ में कहने लगा बुद्धू
छोकरे की बदनसीबी तो देखो
मां के पेट में था तभी इसका बाप भी
झोंक दिया गया उसी आग में...
बेचारी सुखिया जैसे-तैसे पाल ही लेगी इसको
मैं तो इसे साल-साल देख आया करूंगा
जब तक है चलने-फिरने की ताकत चोले में...
तो क्या आगे भी इस कलु॒ए के लिए
भेजते रहेंगे खर्ची गुरु महाराज ?...

बढ़ आया बुद्धू अपने छ्प्पर की तरफ़
नाचते रहे लेकिन माथे के अन्दर
गुरु महाराज के मुंह से निकले हुए
हथियारों के नाम और आकार-प्रकार
खुखरी, भाला, गंडासा, बम तलवार...
तलवार, बम, गंडासा, भाला, खुखरी...

(१९७७ में रचित,'खिचड़ी विप्लव देखा हमने' नामक संग्रह से)



लेख: विजय गौड़


साहित्य में दलित धारा की वर्तमान चेतना ने दलितोद्धार की दया, करूणा वाली अवधारणा को ही चुनौती नहीं दी बल्कि जातीय आधार पर अपनी पहचान को आरोपित ढंग से चातुवर्ण वाली व्यवस्था में शामिल होने को संदेह की दृष्टि से देखना शुरू किया है। दलित धारा के चर्चित विद्धान कांचा ऐलयया की पुस्तक ’व्हाई आई एम नॉट हिन्दू’ इसका स्पष्ट साक्ष्य है। वहीं हिन्दी की दलित धारा के विद्वान ओम प्रकाश वाल्मिकी की पुस्तक ’सफ़ाई देवता’ को भी देखा जा सकता है। चातुवर्णय व्यवस्था की मनुवादी अवधारणा को सिरे से खारिज करते हुए दलितों को शूद्र मानने से दोनों ही विद्वान इंकार करते हैं। हिन्दी साहित्य में दलित धारा का शुरूआती दौर इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है, इसीलिए वह प्रेमचन्द के आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद से भी टकराता रहा है। यानी वह घर्षण-संघर्ष जो अभी तक की स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे रहा है, दलित धारा की वर्तमान चेतना के आलोचना के औजार को और पैना करने की दृष्टि से सम्पन्न माना जा सकता है। दलितोद्धार की दया, करूणा वाली अवधारणा, जो ’हरिजन’ शब्दावली के रूप में सामने आई, वह भी अब अस्वीकार्य हुई है। यहाँ अभी तक के प्रगतिशील विचार पर शक नहीं, पर उसकी सीमाओं को भी चिह्नित किया जा सकता है। बात को थोड़ा और स्पष्ट करते हुए कहें तो दलित साहित्य ने उस भारतीय समाज की सीवनों को उधेड़ना शुरू कर दिया है जो पूंजीवादी विकास के आधे-अधूरे छद्म और सामंती गठजोड़ पर टिका है। यहाँ दलित धारा की इस चेतना पर भी सवाल उठा हुआ है कि इस सच को उद्घाटित कर देने के बाद सामाजिक बदलाव के संघर्ष की उसकी दिशा कैसे अलग है?

यह सारे सवाल जिन कारणों से मौजू हुए हैं उसमें नागार्जुन की कविता ’हरिजन गाथा’ का मेरा पाठ कुछ ऐसे ही सवालों के साथ है। लेकिन यहाँ यह बात भी साफ़ है कि ’हरिजन गाथा’ के उन प्रगतिशील तत्वों को अनदेखा नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने के वक़्त तक मौजू थे। जैसे लाख तर्क-वितर्क के बाद भी प्रेमचंद के रचना-संसार में दलितों के प्रति मानवीय मूल्यों को दरकिनार करना संभव नहीं, वैसे ही
’हरिजन गाथा’ के उस उत्स से इंकार नहीं किया जा सकता जो उसके रचे जाने की वजह है और जिसमें जातिगत आधार पर होने वाले नरसंहारों का निषेध है।

ऐसा तो कभी नहीं हुआ था, बावजूद इसके जो कुछ भी हुआ था, वह अमानवीय था। यातनादायक। हरिजन गाथा ऐसे ही नरसंहार को निशाने पर रखती है और उन स्थितियों की ओर भी संकेत करती है जो इस अमानवीयता के खिलाफ एक नये युग का सूत्रपात जैसी ही हैं।

चकित हुए दोनों वयस्क बुजुर्ग
ऐसा नवजातक
न तो देखा था, न सुना ही था आज तक !

जीवन के उल्लास का यह रंग जिस अमानवीय और हिंसक प्रवृत्ति के कारण है यदि उसे ’हरिजन गाथा’ में ही देखें तभी इसके होने की संभावनाओं पर चकित होते वृद्धों की आशंका को समझा जा सकता है।

यातनादायी, अमानवीय जीवन के खिलाफ़ शुरू हुए दलित उभार को देखें तो उसकी उस हिंसक प्रवृत्ति को भी समझा जा सकता है जो शुरूआती दौर में राजनीतिक नारे के रूप में "तिलक, तराजू और तलवार" जैसी आक्रामकता के साथ दिखाई दी थी और साहित्य में प्रेमचंद की कहानी ’कफ़न’ पर दलित विरोधी होने का आरोप लगाते हुए अभिव्यक्त हुई थी। यह अलग बात है कि अब न तो साहित्य में और न ही राजनीति में दलित उभार की वह आक्रामकता दिखाई दे रही है। वह उसी रूप में रह भी नहीं सकती थी। उसे तो और ज्यादा स्पष्ट होकर संघर्ष की मूर्तता को ग्रहण करना था। पर यहाँ भारतीय आज़ादी के संभावनाशील आंदोलन के अन्त का वह युग जिसके शिकार खुद विचारवान समाजशास्त्री अम्बेडकर भी हुए ही, इसकी सीमा बना है। और इसी वजह से संघर्ष की जनवादी दिशा को बल प्रदान करने की बजाय यथास्थितिवाद की जकड़ ने संघर्ष की उस जनवादी चेतना को दलित आदिवासी गठजोड़ के रूप में बदलकर उसे एक मूर्त रूप देने की बजाय उससे परहेज किया है और अभी तक के तमाम प्रगतिशील आंदोलन की वह राह जो मध्यवर्गीय जीवन की चाह के साथ ही दिखाई दी, अटकी हुई है। हाँ, वर्षों की गुलामी के जुए को उतार फेंकने की आवाज़ें जरूर स्पष्ट हुई हैं। हिचक, संकोचपन और दब्बू बने रहने की बजाय जातिगत आधार पर चौथे पायदान की यह हलचल एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हो और ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश आवाम के जीवन की खुशहाली के लिए भी संघर्षरत हो, नागार्जुन की कविता ’हरिजन गाथा’ का एक यह पाठ तो बनता ही है।

संघर्ष के लिए लामबंदी को शुरूआती रूप में ही हिंसक ढंग से कुचलने की कार्रवाइयों की ख़बरे कोई अनायास नहीं मिलतीं। उच्च जाति के साधन सम्पन्न वर्गो की हिंसा को (जो बेलछी से झज्जर तक जारी है ) इन्हीं निहितार्थों में समझा जा सकता है।

नागार्जुन की कविता ’हरिजन गाथा’ कि ये पंक्तियाँ समाजशास्त्रीय विश्लेषण की डिमांड करती हैं। नागार्जुन उस सभ्य समाज से, जो हरिजनउद्वार के समर्थक भी हैं, प्रश्न करते हुए देखें जा सकते हैं --

"ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
हरिजन माताएँ अपने भ्रूणों के जनकों को
खो चुकी हों एक पैशाचिक दुष्कांड में
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था।"
"एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं
तेरह के तेरह अभागे
अकिंचन मनुपुत्र
जिन्दा झोंक दिये गये हों
प्रचण्ड अग्नि की विकराल लपटों में
साधन सम्पन्न ऊंची जातियों वाले
सौ-सौ मनुपुत्रों द्वारा !"
"ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि
महज दस मील दूर पड़ता हो थाना
और दारोगा जी तक बार-बार
ख़बरें पहुँचा दी गई हों संभावित दुर्घटनाओं की"

नागार्जुन समाजिक रूप से एक जिम्मेदार रचनाकार हैं। वे अमानवीय कार्रवाइयों का पर्दाफाश करना अपने फ़र्ज समझते हैं और श्रम के मूल्य की स्थापना के चेतना से सम्पन्न कवि हो जाते हैं। खुद को हारने में जीत की खुशी का जश्न मानने वाली गतिविधि के बजाय वे सवाल करते हैं। हिन्दी कविता का यह जनपक्ष रूप ही वह आरम्भिक बिन्दु भी है। सामाजिक बदलाव के सम्पूर्ण क्रान्ति वाले रूप को ऐसी ही रचनाओं से बल मिला है। वे रचनाएँ उस नवजात शिशु चेतना के विरुद्ध हिंसक होते साधन-सम्पन्न उच्च जातियों के लोगों से आतंकित नहीं होती बल्कि उनसे हमें सचेत करती है तथा नई चेतना के पैदा होने की अवश्यम्भाविता को चिहि्नत करती है--

"श्याम सलोना यह अछूत शिशु
हम सब का उद्धार करेगा
आज यह सम्पूर्ण क्रान्ति का
बेड़ा सचमुच पार करेगा
हिंसा और अहिंसा दोनों
बहनें इसको प्यार करेंगी
इसके आगे आपस में वे
कभी नहीं तकरार करेंगी..."


सोमवार, 13 अप्रैल 2009

दुष्यन्त की आग


कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ाअरा तो है नज़र के लिए

वो मुतमुइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए

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दुष्यन्त कुमार जी की यह कविता और अन्य कविताएं आप कविता कोश में यहां पढ़ सकते हैं ।

लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे


दुनियाँ के जाने माने महान विचारक , ओशो , ने कवि और कविता के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा था कि ॰॰


"कवि विश्व का सबसे असंतुष्ट प्राणी होता है। वह कुछ कहना चाहता है, पर कह नहीं पाता, इसलिये बार बार कहता है, फिर भी उसे संतोष नहीं मिलता। उनका मानना था कि कोई भी कवि जीवन भर एक ही बात को अलग अलग अन्दाज में अलग अलग ढंग से और अलग अलग शब्दों के द्वारा कहता
है। किसी भी साहित्यकार के सम्पूर्ण साहित्य को ध्यान पूर्वक देखा जाये पता चलेगा कि वह किसी एक सत्य को उद्घाटित करना चाहता है। जिस सत्य का उसने अनुभव किया है उसे अन्य लोगों तक पहुँचाना चाहता है।"

गोस्वामी तुलसी दास का पूरा साहित्य आदर्श मानव की परिकल्पना के द्वारा समाज में राम राज्य की स्थापना करना चाहता है। कबीर का पूरा साहित्य धर्म के बाह्य आडम्बरों को हटा कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना का संदेश है। मीरा का साहित्य सात्विक प्रेम की महत्ता को स्थापित करता है, तो सूरदास का साहित्य वात्सल्य प्रेम से परिचित कराता है। महाकवि निराला का साहित्य शोषण के विरुद् जन चेतना जाग्रत करता दिखाई देता है।

इस सिद्धान्त को दृष्टिगत रखते हुए कविता कोश के कवियो पर नजर डाली तो लगा कि बात बिल्कुल सौ प्रतिशत सही है

हर कवि का एक निश्चित संदेश होता है, अलग कहने का ढंग होता है,एक खास तेवर के साथ साथ भाषा भी उसकी अपनी अलग ही होती है। आइये आज हिन्दी साहित्य में गजल को प्रतिष्ठापित करने वाले कवि दुष्यन्त कुमार के काव्य पर नजर डालें।


दुषंयन्त कुमार के संपूर्ण साहित्य में स्वातन्त्र्योत्तर भारत में व्याप्त अव्यवस्था के विरुद्ध शंख नाद सुनाई देता है। आजादी के बाद राष्ट्र की जनता ने राम राज्य का सपना देखा था ,पर अवसरवादी रजनीतिज्ञों ने उसे जल्दी ही तोड़ दिया। तब दुष्यन्त जी को कहना पड़ा॰॰॰

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यह लिखने में उन्हें कोई आनन्द नहीं आया था और न ही किसी प्रकार का सन्तोष मिला था ,किन्तु अव्यवस्था के विरुद्ध अपने हृदय में आग की ज्वाला लिये वे स्वयं कहते हैं॰॰॰

सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

जब किसी ने उनसे अज्ञानता से ग्रसित निरक्षर और प्रसुप्त चेतना वाले बहुसंख्यक नागरिकों की ओर ध्यान दिलाते हुए पूछा कि क्या आपकी आबाज इनको जगा भी पायेगी ? तब वे आशावादी दृष्टिकोण से उत्तर देते हैं...

राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख
वे बार बार कहते हैं कि आग लगाने के लिये एक चिनगारी काफी होती है॰॰॰॰
एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

सूरज ,प्रकाश, दीपक,चिनगारी आदि शब्द जाग्रति के सूचक हैं। कवि कहीं से और किसी के भी माध्यम से चेतना जाग्रत करना चाहता है॰॰॰॰मेरी तो आदत हैरोशनी जहाँ भी होउसे खोज लाऊँगा अपने द्वारा किए गये प्रयास से जब यथेच्छ सफलता नहीं मिलती तो कवि निराश नहीं होता और कहता है कि अंतिम क्षण तक प्रयास छोड़ें नहीं क्यों कि आने वाली पीढी उसे आगे बढायेगी॰॰

थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे ।

अपेक्षित विकास न हो पाने से दुखी कवि फिर एक नये अन्दाज मे् वही बात कहता है॰॰॰॰

यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
इसी को और स्पष्ट करते हुए दूसरे शब्दों में फिर कहते हैं॰॰॰

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

व्यवस्था बदलने के प्रयास में खड़े होने वाले हंगामों से अपने को दूर करते हुए कवि किसी भी तरह से परिवर्तन चाहता हे। इसमें जो भी सहयोगी हो उसका स्वागत है॰॰॰

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चा
हिए।

व्यवस्था पर चोट करता हुआ फिर एक नया अन्दाज ए बयाँ देखिये॰॰॰॰॰

इन ठिठुरती उँगलियों को इस लपट पर सेंक लो
धूप अब घर की किसी दीवार पर होगी नहीं
जब किसी ने उन्हें सतही तथाकथित विकास दिखाने की कोशिश की तो फिर उन्होंने नये शब्दों में वही बात कही॰॰॰

मैं बेपनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं

मूल भूत प्राकृतिक सुविधाएँ छीन लेने वाले लोग जब आपको झुनझुना पकड़ाकर दाता बनने की कोशिश करते हैँ तब कवि कह उठता है॰॰

कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप
जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही
दुष्यन्त कुमार का पूरा साहित्य दुर्व्यवस्था के खिलाफ हल्ला बोल अभियान की तरह प्रारम्भ हुआ बाद में उसे हवा मिली और अब अँगीठी जल पड़ी है धुआँ छटता दिखाई देता है॰॰॰

इस अंगीठी तक गली से कुछ हवा आने तो दो
जब तलक खिलते नहीं ये कोयले देंगे धुआं
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रविवार, 12 अप्रैल 2009

आँसू / श्रीकृष्ण सरल




आँसू / श्रीकृष्ण सरल
जो चमक कपोलों पर ढुलके मोती में है
वह चमक किसी मोती में कभी नहीं होती,
सागर का मोती, सागर साथ नहीं लाता
अन्तर उंडेल कर ले आता कपोल मोती।
रोदन से, भारी मन हलका हो जाता है
रोदन में भी आनन्द निराला होता है,
हर आँसू धोता है मन की वेदना प्रखर
ताजगी और वह हर्ष अनोखा बोता है।
आँसू कपोल पर लुढ़क-लुढ़क जब बह उठते
लगता हिम-गिरि से गंगाजल बह उठता है,
हैं कौन-कौन से भाव हृदय में घुमड़ रहे
हर आँसू जैसे यह सब कुछ कह उठता है।
सन्देह नहीं, आँसू पानी तो होते ही
वे तरल आग हैं, और जला सकते हैं वे,
उनमें इतनी क्षमता भूचाल उठा सकते
उनमें क्षमता, पत्थर पिघला सकते हैं वे।
आँसू दुख के ही नही, खुशी के भी होते
जब खुशी बहुत बढ़ जाती, रोते ही बनता,
आधिक्य खुशी का, कहीं न पागल कर डाले
अतिशय खुशियों को, रोकर धोते ही बनता।
भावातिरेक से भी रोना आ जाता है
ऐसे रोदन को कोई रोक नहीं पाता,
रोने वाला, निस्र्पाय खड़ा रह जाता है
आगमन आँसुओं का, वह रोक नहीं पाता।
जो व्यक्ति फफक कर जीवन में रोया न कभी
उसके जीवन में कुछ अभाव रह जाता है,
दुख प्रकट न हो, भारी अनर्थ होकर रहता
रो पड़ने से, वह सारा दुख बह जाता है।
इतिहास आँसुओं ने रच डाले कई-कई
हो विवश शक्ति उनने अपनी दिखलाई है,
वे रहे महाभारत की संरचना करते
सोने की लंका भी उनने जलवाई है।


श्रीकृष्ण सरल जी की यह कविता और अन्य कई कविताएं कविता कोश में यहां पढी जा सकती हैं ।

लेख : शास्त्री नित्य गोपाल कटारे

मैं आज कविता कोश के उस पन्ने की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, जिसका रचयिता भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी कलम को तलवार बनाकर युद्ध में जूझता रहा। जिसने 15 महाकाव्य सहित 124 पुस्तकों का सृजन किया। जिसने अपनी पुस्तकें स्वयं के खर्चे पर प्रकाशित कराने के लिए अपनी ज़मीन ज़ायदाद बेच दी। जिसने अपनी पुस्तकें पूरे देश भर में घूम-घूम कर लोगों तक पहुँचायीं और अपनी पुस्तकों की 5 लाख प्रतियाँ बेची, लेकिन अपने लिए कुछ नहीं रखा। जो धनराशि मिली वह शहीदों के परिवारों के लिए चुपचाप समर्पित करता रहा। महाकवि होने के बाद भी जिसकी यह आकांक्षा रही कि उसे कवि या महाकवि नहीं बल्कि 'शहीदों का चारण' के नाम से पहचाना जाये।ऍसा व्यक्तित्व प्रचार का भूखा नहीं होता और न उसका प्रचार हुआ। व्यक्तिगत स्तर पर भी नहीं और शासन स्तर पर भी नहीं। लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास है आने वाली पीढियाँ इस महान व्यक्तित्व के धनी, क्रान्तिकारियों के गुणगान करने और देशसेवा का व्रत लेने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महाकवि श्रीकृष्ण सरल को श्रृद्धा के साथ याद करेंगी और उनकी कालजयी देशभक्तिपूर्ण कविताओं को गुनगुनायेंगी।
' दुनियाँ की सबसे पहली कविता महर्षि वाल्मीकि के द्वारा तब रची गयी ,जब आकाश में स्वच्छन्द विचरण करते हुए क्रौञ्च पक्षियों के काम मोहित जोड़े में से एक को व्याध द्वारा मार दिया गया। क्रौञ्च को लहूलुहान धरती पर तड़फते देखकर कौञ्ची अत्यन्त करुणा युक्त होकर विलाप करने लगी। तब वहाँ उपस्थित महर्षि वाल्मीकि के हृदय से करुणा शब्दों के रूप में निकली ॰॰॰

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वामगमः शाश्वती समाः।
यत् क्रौञ्च मिथुनादेकमवधीः काम मोहितम्।।
करुण रस को रसों का राजा माना जाता है। करुण रस को प्रकट करने के लिये आँसू से बढकर कोई साधन नहीं है.।इसीलिये ऐसा कवि खोजना मुश्किल है जिसने आँसू को अपनी कविता का आश्रय न बनाया हो। लेकिन जिस तरह श्रीकृष्ण सरल ने आँसू के सभी पक्षों ,उसकी सारी शक्तियों का वर्णन बहुत सुन्दर शब्दों में किया है, वह अद्भुत है।
सन्देह नहीं, आँसू पानी तो होते ही
वे तरल आग हैं, और जला सकते हैं वे,
उनमें इतनी क्षमता भूचाल उठा सकते
उनमें क्षमता, पत्थर पिघला सकते हैं वे।

हँसने के लाभ तो बाबा रामदेव जी से लेकर आधुनिक लाफ्टर शो के संचालक बताते नहीं थकते , पर रोने के भी लाभ होते हैं ,यह बात सरल जी को भली भाँति पता है॓॰॰॰॰॰
रोदन से, भारी मन हलका हो जाता है
रोदन में भी आनन्द निराला होता है,
हर आँसू धोता है मन की वेदना प्रखर
ताजगी और वह हर्ष अनोखा बोता है।
आँसू न केवल दुःखातिरेक के सूचक होते हैं वल्कि प्रेमातिरेक और हर्षातिरेक को प्रकट करने में भी वे ही काम आते हैं। लगता है कवि ने अपने जीवन में सभी प्रकार के आँसुओं का साक्षात्कार किया है, तभी तो पूरे आत्मविश्वास से कह पाता है॰॰॰॰
आँसू दुख के ही नही, खुशी के भी होते
जब खुशी बहुत बढ़ जाती, रोते ही बनता,
आधिक्य खुशी का, कहीं न पागल कर डाले
अतिशय खुशियों को, रोकर धोते ही बनता।
कवि की सुस्पष्ट घोषणा है कि जो व्यक्ति फफक फफक कर रोना नहीं जानता उसका जीवन अधूरा है। उनका मानना हे कि जो व्यक्ति खुलकर कभी रोया ही न हो कुण्ठा ग्रस्त होकर दुःखों से भर जाता है।जो
व्यक्ति फफक कर जीवन में रोया न कभी
उसके जीवन में कुछ अभाव रह जाता है,
दुख प्रकट न हो, भारी अनर्थ होकर रहता
रो पड़ने से, वह सारा दुख बह जाता है।
आँसू निकले और कोई परिणाम न हो ऐसा सम्भव नहीं है। जहाँ दुनियाँ में बड़ी से बड़ी समस्या आँसू से सुलझी है वहीं आँसुओं के कारण ही बड़ी समस्यायें खड़ी भी हुई हैं। कहा जा सकता है कि हर बड़ी घटना में कहीं न कहीं आँसू की भूमिका होती है॰॰॰॰
इतिहास आँसुओं ने रच डाले कई-कई
हो विवश शक्ति उनने अपनी दिखलाई है,
वे रहे महाभारत की संरचना करते
सोने की लंका भी उनने जलवाई है।
अन्त में महाकवि सरल जी के साहित्य को कविता कोश में स्थापित करने के लिये कविता कोश टीम को धन्यबाद देता हूँ और उस महान साहित्यकार को विनम्र श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ




मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

नदी / केदारनाथ सिंह


लेख - डा० जगदीश व्योम
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हमें खुशी है कि डा. जगदीश व्योम जी ने हमारे लिये नियमित रूप से लिखना स्वीकार कर लिया है । अब आप हर गुरुवार की सुबह उन्हें इस ब्लौग पर पढ़ सकेंगे ।
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नदी /केदारनाथ सिंह
रचनाकाल : १९८३

अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में


सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई

कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!


केदारनाथ सिंह जी की यह कविता और बहुत सी अन्य कविताएं आप कविता कोश पर यहाँ पढ सकते हैं ।

कविता कोश के पन्नो को पढ़ते पढ़ते नई कविता के बड़ी कद काठी के कवि केदारनाथ सिंह की कविता नदी ने मुझे आकर्षित किया। आकर्षित क्या एक तरह से बाँध लिया। कविता मन को छू गई। लगा कि बड़ा कवि यूँ ही बड़ा नहीं होता न जाने कितनी गहराई में उतरकर सृजन की नींव रखता है। वह कुछ अलग तरह से सोचता। संस्कृत , सभ्यता, लोकतत्व, भाषाई सिद्धपन उसमें रच-बस जाते हैं। वह सकारात्मक सोचता है, सामान्य बोलचाल के लहजे में लिखता है, अपना पांडित्व प्रदर्शन नहीं करता बल्कि सामान्य जन की दृष्टि से भी देखता है। निराशा में आशा की किरण उसे दिखाई देती है, पतझर में भी वसंत के आगमन की पदचाप सुनाई दे जाती है। वह मानवता को, व्यवस्था को देखता नहीं फिरता बल्कि मानवमूल्यों का संचार जन-जन में करने का प्रयास करता है। यह सब विशेषताएँ उसे सबसे अलग श्रेणी में खड़ा करती हैं।

कवि केदारनाथ सिंह की "नदी" कविता उनके प्रसिद्ध संग्रह "अकाल में सारस" से ली गई है। "नदी" वास्तव में केवल बहते हुए जल की धारा मात्र नहीं है, वह हमारा जीवन है, हमारा प्राणतत्त्व है, हमारी संस्कृत का जीवंत रूप है, हमारी सभ्यता की जननी है। नदी हमारी रग-रग में दौड़ रही है। इस कविता में "नदी" का फलक बहुत व्यापक है। यदि हम धीरे से पूरे मनोयोग के साथ नदी के विषय में सोचें तो हम अपनी संस्कृति के विषय में विचार करें, उससे रागात्मक रूप से जुड़ने के लिए संवाद करें तो हम पूरी तरह से स्वयं को नदी से (अपनी संस्कृति और सभ्यता से) जुड़ा हुआ पाते हैं। परंतु यदि अति आधुनिकता के भ्रामक प्रवाह में बहकर अपनी संस्कृति, सभ्यता को तिलांजलि देते हुए उसे हेय दृष्टि से देखते हैं तो नदी भी हमसे दूर बहुत दूर होती चली जाती है-

"
अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
......"

कवि का स्पष्ट मत है कि यदि हम अपनी संस्कृति , सभ्यता से निरंतर कटते रहते हैं तो इसका आशय है कि हम कहीं अलग-थलग पड़ जाते हैं। परंतु संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वह मर नहीं सकती। संस्कृति ब्रह्म की भाँति अनिवर्चनीय है और चिरजीवी है, वह तो जिंदा रहेगी ही किसी न किसी रूप में-

"
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में
......."


कठिनतम समय में भी नदी हमारे साथ रहती है , हमारे अवचेतन में अवस्थित रहकर हमें सम्बल देती है। भले ही हम ऊपर से अत्याधुनिकता का दिखावा करके अपनी संस्कृति, सभ्यता से कटने का अभिनय करें पर हमारे मन के किसी गहरे कोने में कहीं छिपकर नदी बहती रहती है-

"
सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई
....."


कवि हमारे अंदर छिपी बैठी नदी की आहट सुनने की प्रेरणा देकर हमें हमारी संस्कृति
, हमारी सभ्यता से जोड़ देना चाहता है-


"
कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!
......."


कविता की भाषा बोलचाल की सहज हिन्दी है परंतु प्रवाहात्मकता नदी की जलधारा सी बहती हुई। पूरी कविता में कवि जो कुछ कहना चाहता है वह पाठक तक बहुत अच्छी तरह से संप्रेषित हो रही है। कुल मिलाकर यह एक उत्कृष्ट कविता है।


रविवार, 5 अप्रैल 2009

अँधेरी खाइयों के बीच / कुँअर बेचैन


दुखों की स्याहियों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि जैसे सोख़्ता हो।

जनम से मृत्यु तक की
यह सड़क लंबी
भरी है धूल से ही
यहाँ हर साँस की दुलहिन
बिंधी है शूल से ही
अँधेरी खाइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि ज्यों ख़त लापता हो।

हमारा हर दिवस रोटी
जिसे भूखे क्षणों ने
खा लिया है
हमारी रात है थिगड़ी
जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है
घनी अमराइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी,
जैसे कि पतझर की लता हो।

हमारी उम्र है स्वेटर
जिसे दुख की
सलाई ने बुना है
हमारा दर्द है धागा
जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है
कई शहनाइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी
जैसे अभागिन की चिता हो।

कविता कोश के पन्नों को पलटते हुए मेरी
दृष्टि एक गीत पर पड़ी तो फिर आगे नहीं बढी, ठहर ही गई। जिन्दगी को लेकर शायद ही कोई कवि हो ,जिसने कुछ न लिखा हो,पर इतने अच्छे प्रतीक और शब्दों का सामंजस्य पूर्ण प्रयोग कहीं नही देखने मिला। देखें ॰॰

दुखों की स्याहियों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि जैसे सोख़्ता हो।

नये प्रतीक और प्रतिमानों से युक्त आधुनिक उपमाओं से सज्जित यह गीत श्रेष्ठ नवगीत की श्रेणी में आता है.। सहज शब्द विन्यास और भाषा की सरलता इसे अत्यन्त बोधगम्य बना देता है।

हमारी उम्र है स्वेटर
जिसे दुख की
सलाई ने बुना है
हमारा दर्द है धागा
जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है

प्रत्येक कवि का कविता लिखने का एक उद्देश्य होता है , लेकिन बहुत कम ही कवि उसमें सफल हो पाते है। इस गीत के माध्यम से कवि अपना संदेश हृदय तक पहुंचाने में पूर्ण सफल हुआ है।

हमारा हर दिवस रोटी
जिसे भूखे क्षणों ने
खा लिया है
हमारी रात है थिगड़ी
जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है
घनी अमराइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी,
जैसे कि पतझर की लता हो।

दिन और रात का निरंतर बीतना ही जिंदगी है परन्तु एक आम आदमी अपना पूरा दिन रोटी की जुगाड़ में बिता देता है क्योंकि उसे अपने और अपने परिवार के पेट की भूख मिटानी है, कवि ने इस त्रासदी को कितनी सपाट बयानी के साथ कह दिया है-

हमारा हर दिवस रोटी / जिसे भूखे क्षणों ने / खा लिया है
रात की थिगड़ी को अमावस ने सिया है........ अमावस दुख का प्रतीक है परन्तु कवि ने अमावस के साथ "बूढ़ी" विशेषण लगाकर यह संकेत भी दे दिया है कि इस दुख की उम्र थोड़ी ही है ........

गीत की सभी विशेषताओं को समेटे, झरने के प्रवाह की तरह कल कल करता यह गीत जीवन की सत्यता को उद्घाटित करता है। इस नवगीत के रचयिता गीत की दुनिया के बादशाह डा.कुँअर बेचैन हैं। कुँअर बेचैन के गीत पढने में जितने अच्छे लगते है् ,सुनने में चार गुना ज्यादा अच्छे लगते हैं।

जो लोग गीत लिखना चाहते हैं उन के लिये कुँअर बेचैन के गीतों को पढना अनिवार्य होना चाहिये |

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ले - शास्त्री नित्यगोपाल कटारे


कुँअर बेचैन जी की यह और बहुत सी अन्य कविताएं आप कविता कोश पर यहाँ पढ सकते हैं ।



शनिवार, 4 अप्रैल 2009

कविता कोश के पन्नों से


कहते हैं कि कविता को पढना और कविता को समझना दो अलग अलग बातें हैं ।

कविता को पढते तो हम सभी हैं लेकिन इस चिट्ठे में शास्त्री नित्य गोपाल जी कटारे हमें कविता को समझ कर उस का आनन्द लेना सिखायेंगे । हर सप्ताह सोमवार की सुबह कटारे जी ’कविता कोश’ ( www.kavitakosh.org ) के पन्नो से एक कालजयी रचना को चुन कर उसे अपनी टिप्पणी के साथ प्रस्तुत करेंगे । टिप्पणी में कुछ कविता के बारे में होगा , कुछ कवि के बारे में । कभी कविता की विधा के बारे में तो कभी कविता से जुड़ा रोचक संस्मरण ।

शुरुआत हम सिर्फ़ कटारे जी से कर रहे हैं लेकिन भविष्य में काव्य के और मर्मज्ञ भी इस से जुड़ेंगे और हमें उन्हें पढने का अवसर मिलेगा ।

तो चलिये देर किस बात की है , बुकमार्क कीजिये इस चिट्ठे को और इंतज़ार कीजिये सोमवार की सुबह का .....