रविवार, 3 मई 2009

बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ / अकबर इलाहाबादी


दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्ती से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त, नक़्श ब-दीवार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा हूँ इब्रत से, दवा की नहीं हाजत
गम़ का मुझे ये जो़’फ़ है, बीमार नहीं हूँ

वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ

यारब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जो़’फ़ की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ


तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला
ज़ीस्त= जीवन; लज़्ज़त= स्वाद
ख़ाना-ए-हस्ती= अस्तित्व का घर; बेलौस= लांछन के बिना
फ़क़्त= केवल; नक़्श= चिन्ह, चित्र
अफ़सुर्दा= निराश; इब्रत=मानसिक खेद ; हाजत= आवश्यकता
जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी,क्षीणता
गुल=फूल; ख़िज़ां= पतझड़; ख़ार= कांटा
महफ़ूज़= सुरक्षित; इनायत= कृपा; तलबगार= इच्छुक
अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़=निराशा और क्षीणता;क़ाफ़िर=नास्तिक; दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला
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अकबर इलाहाबादी जी की यह गज़ल और अन्य रचनाएं कविता कोश में यहां पढी जा सकती हैं ।

लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
केवल रस,छन्द और अलंकारों द्वारा सुसज्जित शब्द समूह की रचना कर लेना ही कवि होने के लिये पर्याप्त नहीं है। कवि को वेद और उपनिषदों में ॠषि, मुनि, दृष्टा के समतुल्य माना गया है। कवि वह होता है जो परम सत्य को उद्घाटित करने में समर्थ हो, जो समाज के कल्याण के लिये साधन उपलब्ध करा सकता हो, जो वर्तमान को देखकर भूतकाल और भविष्यकाल का अनुमान कर सके, जो इन्द्रियातीत पदार्थों का समुचित अनुभव कर सकता हो।श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है॰॰॰
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनाम् उशना कविः

अर्थात् मैं मुनियों में व्यास और कवियों में श्रेष्ठ कवि उशना अर्थात् शुक्राचार्य हूँ । जबकि शुक्राचार्य जी ने कोई महाकाव्य नहीं लिखा, अपितु उनने मृत्यु से जीतने के लिये मृतसंजीवनी नामक महामन्त्र की रचना की थी। समाज को सबसे बड़े भय से मुक्त करने की कविता लिखी थी। फिर एक स्थान पर कविं पुराणम् अनुशासितारम् कहकर कवि को सर्वज्ञ माना गया है। एक और स्थान पर कर्म और अकर्म की गहनता बताते हुए भगवान् वासुदेव कहते हैं॰॰॰ किं कर्मं किमकर्मञ्च कवयोऽपि विमोहिताः अर्थात् कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसको समझना इतना कठिन है कि यहाँ कविजन तक भ्रमित हो जाते हैं कहने का तात्पर्य है कि सामान्यतः सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य को समझ लेना कवि का कार्य है। अतः जिन लोगों ने दुनियाँ के तमाम रहस्यों को उद्घाटित करके जन सामान्य को जीवन जीने की कला सिखाई है वास्तव में वे ही कवि कहलाने के हकदार हैं।

कविता कोश के पन्नों को पलटने से जो कवि इस कसौटी पर खरे उतरते हैं उनमें आधुनिक काल के शायर अकबर इलाहाबादी का नाम नहीं भूला जा सकता। उनका एक-एक शेर जीवन के सूक्ष्म रहस्यों का उद्घाटित करता है। जीवन का शाश्वत सत्य किसी धर्म, सम्प्रदाय के अनुसार अलग-अलग नहीं होता अपितु सम्पूर्ण मानव का सत्य एक ही है। अकबर इलाहाबादी के शेर वही बात कहते हैं जो गीता के श्लोक बार-बार कहते आ रहे हैं। कहीं कहीं तो लगता है जैसे गीता के श्लोक का उर्दू में अनुवाद किया गया हो। देखें गीता का यह श्लोक ॰॰॰॰
त्यक्त्वा कर्म फलासंगं नित्यतृप्तः निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित् करोति सः।।
अर्थात कर्म के फल की आसक्ति का सर्वथा त्याग करके नित्य तृप्त और निराश्रित रहते हुए कर्म करने वाला व्यक्ति सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करता, अर्थात् कर्म बन्धन से मुक्त रहता है। अब देखिये अकबर इलाहाबादी अपने शब्दों में यही बात कैसे कहते हैं॰॰॰
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ ।।

यही है जीवन जीने की कला। जब कुछ न खरीदना हो और न बेचना हो तब बाजार में निकल कर देखें तो आनन्द ही आनन्द दिखाई देगा। वहाँ जो खरीदने बेचने आये हैं उनके चेहरों पर तनाव दिखेगा, क्योंकि वे लाभ॰॰॰ हानि के बन्धन में फंसे हुए होते हैं। आप उन्हें देखकर बिना हंसे नहीं रह सकते।

दुनियाँ के अधिकांश लोग भौतिक विषयों के उपभोग को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं पर बाद में पता चलता है कि भोगाः न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः अर्थात् हम भोगों को नहीं भोग सके और भोगों ने हमको ही भोग लिया है। तब कवि उसका समाधान बताता है॰॰॰
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टः तस्य कार्यं न विद्यते।।

अर्थात् जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। इसी बात को शायर इस तरह कहता है॰॰॰
ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ ।।

मनुष्य की इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होतीं। जितना उन्हें पूरा करने की कोशिश की जाती है उतनी ही बढती जाती हैं। तब गीता का गायक घोषणा करता है॰॰॰
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।

अर्थात् जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममता अहंकार और स्पृहा रहित हुआ जीवन जीता है वह परम शान्ति को प्राप्त होता है। लगता है शायर को अच्छी तरह पता है कि बिना किसी लांछन के जीवन जी कर चले जाना कितना कितना महत्वपूर्ण है तभी वह कह पाता है॰॰॰

इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊँगा बेलौस
साया हूँ फ़क़त, नक़्श ब-दीवार नहीं हूँ ।।

इसी तरह अकबर इलाहाबादी जी ने भारतीय दर्शन के तथ्यों को अपनी सहज भाषा में व्यकत किया है, जिसका प्रभाव जनमानस पर निश्चित रूप से हुआ।


7 टिप्‍पणियां:

  1. क्या बात है अनूप जी...बेहद खूबसूरत पोस्ट है आपकी...ज्ञान चक्षु खुल गए...मैंने सेव कर ली है इसे एक आध बार और पढूंगा...श्रेष्ठ लेखन...
    नीरज

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  2. नीरज जी ! यह लेख नित्यगोपाल कटारे जी ने लिखा है और वही इस के लिये बधाई के पात्र हैं । मै इस ब्लौग का सिर्फ़ संयोजन कर रहा हूँ ।
    मुझे भी यह पोस्ट बहुत पसन्द आई । अलग अलग कोणों से देखा जाये , तब भी जीवन का सत्य तो एक ही है ।

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  3. इस ग़ज़ल के दार्शनिक मूल्य का सुन्दर विवेचन प्रस्तुत किया आपने। गीता के भी जो उद्धरण प्रयुक्त हुये हैं वो भी सटीक लगते हैं। इसके लिये मैं हार्दिक बधाई एवं आभार व्यक्त करता हूँ।
    इस ग़ज़ल को स्वर्गीय कुन्दन लाल सहगल ने भी अपने मख़्सूस अन्दाज़ मे गाया है, जो सुनने लायक है।
    मुझे एक दो स्थान पर शंका है। कटारे जी की व्याख्या में नहीं बल्कि मूल ग़ज़ल में।
    इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊँगा बेलौस
    साया हूँ फ़क़्त, नक़्श बेदीवार नहीं हूँ।
    शब्द ख़ाना-ए-हस्ती होना चाहिये। ख़ाना-ए-हस्त कुछ होता भी नहीं उर्दू में। सहगल साहब ने भी इसे इसी प्रकार गाया है।
    नक़्श बेदीवार भी नक़्श-ब-दीवार अर्थात दीवार पर बना हुआ निह्न या आकृति होना चाहिये।
    अफ़सुर्दा हूँ इबारत से की जगह ’अफ़सुर्दा हूँ इबरत’ से होना उचित है। एक तो इबारत से बह्र बिगड़ रही है और दूसरे उसका कोई सार्थक अर्थ भी नहीं निकल पा रहा है।
    इब्रत का अर्थ है वह मानसिक खेद जो किसी बड़े आदमी को कष्ट में देख कर होती है (शब्दकोश-मद्दाह)
    अफ़सुर्दः का अर्थ उदास या निराश लिया जा सकता है। अब अगर आप पुनः इस शेर को देखें तो अर्थ और भी स्पष्ट होगा।
    अफ़सुर्दा हूँ इबारत से, दवा की नहीं हाजित
    गम़ का मुझे ये जो’फ़ है, बीमार नहीं हूँ
    कटारे जी को साधुवाद देते हुये
    सादर
    अमित

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  4. अकबर इलहाबादी की काव्य दृष्टि,सोन्दर्य बोध और भावसंदेशो को तुलनात्मक रूप से प्रस्तुत कर रचनाओ
    के सामर्थ एवम् देश काल परिस्थितियों के अंतराल के बाद भी भगवत गीता मे दिये गये उपदेशो से समानता
    की ओर संकेत करता हुआ अच्छा विश्लेषण है जिसे श्री कटारे जी ने प्रस्तुत किया है ,अनुकरणीय है। धन्यवाद।

    कमलेश कुमार दीवान (अध्यापक एवं लेखक)
    होशंगाबाद म.प्र.

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  5. अमित जी:

    पोस्ट को पढने और गलतियों की तरफ़ इशारा करने के लिये धन्यवाद।
    आप के सुझाव के अनुसार कुछ सुधार किये हैं ।
    देखिये ..

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