तुम कभी थे सूर्य
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये
यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये
वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये
देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये
देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये
प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये
कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये
सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये
चंद्रसेन विराट जी की यह गज़ल और अन्य कविताएं कविता कोश में यहां पढ़ी जा सकती हैं ।
लेख : शास्त्री नित्य गोपाल कटारे
दुष्यंत जी के बाद हिन्दी गजल की परम्परा को आगे बढाने का कार्य अनेक कवियों ने सफलता पूर्वक किया है । उनमें श्री चन्द्रसेन विराट का नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। छन्द शास्त्र के मर्मज्ञ श्री विराट ने अनेक छन्दों में कुशलता के साथ अपनी लेखनी के माध्यम से हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। आपका सारा लेखन प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य के मध्य सेतु का काम करता है। आपकी कविताओं में एक ओर जहाँ प्राचीन भारतीय संस्कृति, परम्परा और जीवन मूल्यों को समुचित स्थान मिला है साथ ही आधुनिक भौतिकवाद की चकाचोंध से भ्रमित समाज को एक अच्छी दिशा भी दिखाई देती हैं।
"तुम कभी थे सूर्य" ग़ज़ल में आपने पुराने भारतीय गौरव का स्मरण कराते हुए आज तक की यात्रा का कुशल विवेचन किया है। कभी विश्वगुरु की उपाधि से विभूषित रह चुके भारत की आज स्थिति क्या है? और क्या यही हमारी उपलब्धि है? सोचने को विवश करती है यह पंक्ति:
तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये
"यथा राजा तथा प्रजा" सूक्ति के अनुसार जैसा नेतृत्व होगा समाज भी वैसा ही हो जाता है। यदि नेता अच्छा नही है तो देश कभी आगे नहीं बढ सकता। नेतृत्व बदलते ही सारी व्यवस्था बदल जाती है॰॰॰
यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये
समय सबका नियन्ता है। समय ने सबको सबक सिखाया है, उससे कोई नहीं बच सकता। "समय बड़ा बलवान" का स्मरण रखने की शिक्षा देते हुए कवि कहता है॰॰॰
वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये
राजनीति की अस्थिरता का जिक्र करते हुए कवि ने "प्यार और राजनीति में सब कुछ जायज है" कहने वाले राजनीतिज्ञों को सावधान किया है॰॰॰
देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये
एयरकंडीशन बंगलों में बैठकर राष्ट्र की समस्याओं पर धाराप्रवाह भाषण करने वाले तथाकथित नेताओं को झाड़ते हुए कवि कहता है॰॰॰
देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये
शाश्वत प्रेम के आध्यात्मिक महत्व को समझाते हुए कवि उसकी दुर्दशा पर आँसू बहाता दिखता है॰॰॰
प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये
प्रगतिशील लेखन के नाम पर हो रही साहित्य की गिरावट पर कवि चोट करते हुए उन व्यावसायिक समालोचकों की खबर भी लेता है॰॰॰
कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये
आधुनिक सभ्यता की उपलब्धियों पर कटाक्ष करते हुए कवि चिन्तन करने को विवश करता है॰॰॰
सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये
खूबसूरत रचना वो भी व्याख्या के साथ। वाह अनूप भाई। मजा आ गया।।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
नित्य गोपाल जी,
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना चयन एवं प्रत्येक शेर के संदर्भों का संकेत देने के लिये
धन्यवाद!
नये ग़ज़लकार भी इस रचना के शिल्प से सीख ले सकते हैं।
सादर
अमित
गज़ल चयन के लिये बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबहुत ही सार्थक मर्म स्पर्शी व सोचने को बाध्य करने वाली गज़ल
विशेषत: यह पक्ति:
प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले ।
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये ॥
सत्य । बधाई
--आनन्द
मैं पिछले 25 वर्षोँ से विराट जी की रचनायें पढ़ता आ रहा हूँ.बहुत सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंलेकिन इस पँक्ति में शाय
द कोई टाइपिंग की त्रुटी है
वक्त का पहिया किसे कब कहां कुचले क्या पता
ज़रा मूल रचना एक बार फिर देख लें
मुझे लगता है कि मूल पँक्ति को इस तरह होना चाहिये
था
वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
श्यामल , आनन्द जी और अमित ! धन्यवाद । यह गज़ल मुझे भी बहुत अच्छी लगी । बधाई के पात्र कटारे जी हैं जिन्होनें इतना सुन्दर चयन किया ।
जवाब देंहटाएंद्विज भाई ! गज़ल को बारीकी से पढने के लिये धन्यवाद । मुझे पता नहीं क्या सही है लेकिन शायद बहर के हिसाब से आप की सुझाई पंक्ति बेहतर लग रही है , इसलिये सुधार कर दिया है ।
यह गज़ल कविता कोश से ली गई थी , इसलिये वहां भी सुधार कर रहा हूँ ।
Gazal ka har sher wazandar hai. Mubarak.
जवाब देंहटाएंMahesh Chandra Dewedy, Lucknow