सोमवार, 22 जून 2009

समुद्र-मंथन / शरद बिल्लोरे

समुद्र-मंथन
मैं समुद्र-मंथन के समय
देवताओं की पंक्ति में था
लेकिन बँटवारे के वक़्त
मुझे राक्षस ठहरा दिया गया और मैंने देखा
कि इस सबकी जड़ एक अमृत-कलश है,
जिसमें देवताओं ने
राक्षसों को मूर्ख बनाने के लिए
शराब नार रखी है।
मैं वेष बदल कर देवताओं की लाईन में जा बैठा
मगर अफ़सोस अमृत-पान करते ही
मेरा सर धड़ से अलग कर दिया गया।
और यह उसी अमृत का असर है
कि मैं दोहरी ज़िन्दगी जी रहा हूँ।

दो अधूरी ज़िन्दगी
राहु और केतु की ज़िन्दगी
जहाँ सिर हाथों के अभाव में
अपने आँसू भी नहीं पोंछ सकता, तो धड़
अपना दुख प्रकट करने को रो भी नहीं सकता।

दिन-रात कुछ लोग मुझ पर हँसते हैं
ताना मारते हैं
तब मैं उन्हें जा दबोचता हूँ।
फिर सारा संसार
ग्रहण के नाम पर कलंक कह कर
मुझे ग़ाली देता है।
तब मुझे अपनी भूल का अहसास होता है
क्योंकि समुद्र-मंथन के पूर्व भी
मैं राक्षस ही था
और इस बँटवारे में राक्षसों ने
देवताओं को धोखा दिया था
मेरी ग़लती थी कि मैं
बहुत पहले से वेष बदल कर
देवताओं की लाईन में जा खड़ा हुआ था।
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शरद बिल्लोरे जी की यह कविता और अन्य कविताएं कविता कोश में यहां पढी जा सकती है ।

लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
साहित्य और समाज का परस्पर क्या सम्बन्ध है और साहित्यकार का समाज के प्रति क्या दायित्व है? इस विषय में अभी तक जितनी बातें सामने आयी हैं, उनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध और सर्वमान्य उक्ति है "साहित्य समाज का दर्पण है"। अर्थात् साहित्य और समाज का वही सम्बन्ध है, जो किसी व्यक्ति और दर्पण का। दर्पण का एक मात्र दायित्व यही हे कि वह व्यक्ति को उसके सच्चे स्वरूप को दिखाता रहे। चेहरा कैसा लग रहा है ? कहाँ चेहरे पर दाग लगा है, बाल ठीक से सजे है कि नहीं? कल से आज में क्या अन्तर है? यह सब बिल्कुल जैसा का तैसा दिखलाने का कार्य दर्पण करता है। व्यक्ति उसे देखकर अपने को व्यवस्थित कर लेता है। साहित्य भी ठीक दर्पण जैसा समाज को उसका चेहरा दिखलाता रहता है। समाज अपने चेहरे को व्यवस्थित कर लेता है। इसीलिये किसी भी काल के साहित्य से तत्कालीन समाज का स्वरूप साफ साफ नजर आ जाता है।

आज मैं एक ऐसे नवयुवक साहित्यकार की कविता पर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ, जो केवल २५ वर्ष की आयु में १०० श्रेष्ठ कविताओं की रचना कर साहित्य जगत में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखाकर दिवंगत हो गया। मध्यप्रदेश के एक छोटे से ग्राम रहटगाँव में जन्मे शरद बिल्लोरे ने अपनी कविताओं की शक्ल में समाज की पीड़ा को पहचाना था। प्रसिद्ध समीक्षक श्री राजेश जोशी के शब्दों में॰॰॰
शरद बिल्लौरे आठवें दशक के उत्तरार्ध का सबसे अधिक संभावनाओं से भरा कवि था। हर जगह उसमें लोगों से अपनापा बना लेने का विलक्षण गुण था। उसकी कविता की आत्मीयता वस्तुतः उसके व्यक्तित्व का ही कविता में रूपान्तरण है। गाँव के अपने निजी अनुभवों को कविता में रूपान्तरित करते हुए १९७४-७५ के आसपास उसने कविता लिखना शुरू किया था। उसकी प्रारम्भिक कविताओं में भी एक सहज और स्वयंस्फूर्त वर्ग-चेतना थी, जिसका विकास आगे चलकर एक प्रतिबद्ध कविता में हुआ।

उसकी कविता गहरे और सघन लयात्मक संवेदन की कविता है। जीवन की भटकन और कठिन संघर्षों को रचनात्मक कौशल और व्यस्क होती स्पष्ट वैचारिक दृष्टि के साथ कविता और कविता की विविधता में बदलती कविता। लोक-विश्वासों और लोक-मुहावरों को नए सन्दर्भ में व्याख्यायित करती। तीव्र आवेग और खिलंदड़ेपन के साथ ही गहरी आत्मीयता और सामाजिक विसंगतियों से उपजे विक्षोभ और करुणा की कविता।

समुद्र मन्थन कविता में कवि ने एक साथ कई संदेश देने की कोशिश की है। एक तो कवि महत्वपूर्ण पौराणिक कथा से लोगों को परिचित कराना चाहता है, तो दूसरी ओर वह लाभ के लिये पाला बदल लेने वाले व्यक्तियों को सतर्क भी करना चाहता है । गीता के सदुपदेश "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" का स्मरण कराते हुए कवि अपने स्वभाव में ही जीने की सलाह देता दिखाई देता है
मैं समुद्र-मंथन के समय
देवताओं की पंक्ति में था
लेकिन बँटवारे के वक़्त
मुझे राक्षस ठहरा दिया गया और मैंने देखा
कि इस सबकी जड़ एक अमृत-कलश है,
जिसमें देवताओं ने
राक्षसों को मूर्ख बनाने के लिए
शराब नार रखी है।
मैं वेष बदल कर देवताओं की लाईन में जा बैठा
मगर अफ़सोस अमृत-पान करते ही
मेरा सर धड़ से अलग कर दिया गया।
और यह उसी अमृत का असर है
कि मैं दोहरी ज़िन्दगी जी रहा हूँ।
दुहरी जिन्दगी जीना कितना भयावह होता है,
इसका मार्मिक चित्रण कितने अद्भुत ढंग से कवि करता है॰॰
दो अधूरी ज़िन्दगी
राहु और केतु की ज़िन्दगी
जहाँ सिर हाथों के अभाव में
अपने आँसू भी नहीं पोंछ सकता, तो धड़
अपना दुख प्रकट करने को रो भी नहीं सकता।
महत्वपूर्ण लाभ के लिये अपनी स्वाभाविक वास्तविक पहचान खो देने वाले लोगों की क्या हालत होती है और उन्हें अन्त में उन्हें अपनी भूल का अहसास निश्चय ही होता है पर तब कोई लाभ नहीं।

दिन-रात कुछ लोग मुझ पर हँसते हैं
ताना मारते हैं
तब मैं उन्हें जा दबोचता हूँ।
फिर सारा संसार
ग्रहण के नाम पर कलंक कह कर
मुझे ग़ाली देता है।
तब मुझे अपनी भूल का अहसास होता है
क्योंकि समुद्र-मंथन के पूर्व भी
मैं राक्षस ही था
और इस बँटवारे में राक्षसों ने
देवताओं को धोखा दिया था
मेरी ग़लती थी कि मैं
बहुत पहले से वेष बदल कर
देवताओं की लाईन में जा खड़ा हुआ था।

मंगलवार, 9 जून 2009

नाम रूप का भेद / काका हाथरसी


नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर ?
नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और
शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने
कहँ ‘काका’ कवि, दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर


मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप
जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट पैंट में-
ज्ञानचंद छै बार फेल हो गए टैंथ में
कहँ ‘काका’ ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे


देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ
मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे
धनीराम जी हमने प्राय: निर्धन देखे
कहँ ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए क्वाँरे
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे


दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल
मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल
रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं
ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भौंक रहे हैं
‘काका’ छै फिट लंबे छोटूराम बनाए
नाम दिगंबरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए


पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल
बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल
मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-
बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी
कहँ ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा
नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा


दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर
भागचंद की आज तक सोई है तकदीर
सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले
निकले प्रिय सुखदेव सभी, दुख देने वाले
कहँ ‘काका’ कविराय, आँकड़े बिल्कुल सच्चे
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे


चतुरसेन बुद्धू मिले,बुद्धसेन निर्बुद्ध
श्री आनंदीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध
रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते
कहँ ‘काका’, बलवीरसिंह जी लटे हुए हैं
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं


बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल
सूखे गंगाराम जी, रूखे मक्खनलाल
रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी
निकले बेटा आशाराम निराशावादी
कहँ ‘काका’ कवि, भीमसेन पिद्दी-से दिखते
कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते


आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद
कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद
भागे पूरनचंद अमरजी मरते देखे
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे
कहँ ‘काका’, भंडारसिंह जी रीते-थोते
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते


शीला जीजी लड़ रहीं, सरला करतीं शोर
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर
निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली
सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली
कहँ ‘काका’ कवि, बाबूजी क्या देखा तुमने ?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने


तेजपाल जी भोथरे मरियल-से मलखान
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान
करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई
वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई
कहँ ‘काका’ कवि, फूलचंदजी इतने भारी
दर्शन करके कुर्सी टूट जाए बेचारी


खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन
मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन
चिलगोजा से नैन शांता करती दंगा
नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा
कहँ ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही है


कलियुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ
चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ
बाबू भोलानाथ, कहाँ तक कहें कहानी
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी
‘काका’, लक्ष्मीनारायण की गृहिणी रीता
कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता


अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम
रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खूब मिलाया
दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया
‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा
पार्वतीदेवी हैं शिवशंकर की अम्मा


पूँछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान
घर में तीर-कमान बदी करता है नेका
तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा
सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं
विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं


सुखीराम जी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त
हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ
रहें सदा अस्वस्थ, प्रभू की देखो माया
प्रेमचंद ने रत्ती-भर भी प्रेम न पाया
कहँ ‘काका’, जब व्रत-उपवासों के दिन आते
त्यागी साहब, अन्न त्यागकर रिश्वत खाते


रामराज के घाट पर आता जब भूचाल
लुढ़क जाएँ श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल
बैठें घूरेलाल रंग किस्मत दिखलाती
इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती
कहँ ‘काका’ गंभीरसिंह मुँह फाड़ रहे हैं
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं


दूधनाथ जी पी रहे सपरेटा की चाय
गुरु गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण
मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण
‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे
हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे


रूपराम के रूप की निंदा करते मित्र
चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र
कामराज का चित्र, थक गए करके विनती
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती
कहँ ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी


नाम-धाम से काम का, क्या है सामंजस्य ?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटे न रेखा
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा
कहँ ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की

काका हाथरसी की यह कविता और अन्य कविताएं कविता कोश पर यहां पढी जा सकती हैं ।

लेख : शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

कविता की अनेक परिभाषाओं में सर्वमान्य और सबसे प्रसिद्ध दो परिभाषाएं हैं:

  • " काव्यो वै आनन्दः " अर्थात् जो अभिवंयक्ति आनन्द उत्पन्न कर दे उसे कविता कहते हैं।

  • " वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम् " अर्थात् जो वाक्य रस उत्पन्न करता हो उसे कविता कहते हैं।

दोनों का तात्पर्य लगभग एक ही है। आनन्द का स्रोत रस ही तो है, रस होगा तो आनन्द आयेगा। वैसे तो सभी रसों में आनन्द की अनूभूति होती है पर हास्य रस तो सीधा-सीधा आनन्द उड़ेल देता है। इसीलिये हास्य कविता की सबसे ज्यादा मांग होती है। कवि-सम्मेलन तो अब केवल हास्य रस पर ही टिके हुए हैं। हास्य का शरीर पर भी अनुकूल प्रभाव होता है अतः योग में भी हास्य आसन का समावेश किया गया है। जहाँ तक कविता में हास्य रस का प्रश्न है तो अधिकांश हास्य कवियों ने फूहड़ता का सहारा लिया है और उनका केवल हंसने हंसाने तक ही उद्देश्य रहा है, किन्तु कुछ ऐंसे हास्य कवि भी हुए जिन्होंने न केवल लोगों को हंसा-हंसाकर लोट-पोट किया, वरन उसे गंभीर बनाकर कुछ सोचने को भी विवश किया है़, और हास्य कविता को साहित्य में एक अलग स्थान भी दिया है। ऐसे कवियों में काका हाथरसी का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है । ऐसा कोई सामाजिक विषय नहीं है जिस पर काका की लेखनी न चली हो। उनका प्रिय छन्द कुंडलियाँ है। गिरधर की कुंडलियों के बाद यदि कहीं कुंडलियों की चर्चा होती है तो वह काका की कुंडलिया हैं। काका के कहने का ढंग इतना अच्छा होता था कि सुनने वाला अकेले में भी हंसता दिखाई देता था। मुझे बचपन में सुनी उनकी कई कुंडलियाँ याद हैं। बच्चों को कुछ पढा़या जाता है फिर उनसे प्रश्न पूछे जाते हैं, पर कभी-कभी बच्चे अपने निजी उत्तर कैसे देते हैं देखिये॰॰॰
पढा रहे थे क्लास में मास्टर व्यंकट राव
गुण माता के दूध में होते क्या बतलाव
होते क्या बतलाव तभी एक बोला बच्चा
बिना उवाले उसको पी सकते हैं कच्चा
सबसे पीछे से एक लड़की बोली लिल्ली
मम्मी जी का दूध नहीं पी सकती बिल्ली़।।


इसी प्रकार एक और मनोरंजक एवं सटीक प्रश्नोत्तर देखिये॰॰
प्रश्न
आकर बोले एक दिन पंडित पन्नालाल।
मर्दों के मस्तिष्क से क्यों उड़ जाते बाल।।
क्यों उड़ जाते बाल बात हम तुमसे पूछें
महिलाओं की क्यों न उपजती दाढी मूछें
कह काका कविराय गए हम भागे भागे
तब दोनों प्रश्नों के उत्तर आए आगे ।।
उत्तर
काया के जिस भाग से ज्यादा लेते काम।
बाल वहाँ जमते नहीं बंजर होता चाम।।
बंजर होता चाम बुद्धि पर जोर लगाते
उन पुरुषों के सिर के बाल शीघ्र उड़ जाते
कह काका देवी जी दिन भर गप्प लड़ातीं
इसीलिये तो दाढी मूछ नहीं उग पाती।।
प्रस्तुत कविता में नाम से विपरीत गुण वाले १०८ नामों की मनोरंजक चर्चा है। भारत में नामकरण एक संस्कार होता है । इस संस्कार में विद्वान लोग ग्रह नक्षत्रों के आधार पर बच्चे के व्यक्तित्व को दर्शाने वाला नाम रखते थे। तब नाम से ही उसके गुणों का पता चल जाता था। इसलिये कहा जाता है " यथा नामो तथा गुणः " अर्थात् जैसा नाम वैसा गुण, या जैसे गुण वैसा नाम। पर आजकल माता पिता अपनी विना कुछ विचार किये कुछ भी नाम रख लेते हैं, तब कया होता है काका से सुनिये।